Tuesday 6 October 2015

The story- समझौता

समझौता
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जब माँ का फोन आया, तब मैं स्नान घर से बाहर
निकल रहा था। मेरे रिसीवर उठाने से पहले ही
शिखा ने फोन उठा लिया था।
माँ उससे कह रही थीं, "शिखा, मैंने तुम्हें एक सलाह
देने के लिए फोन किया है। मैं जो कुछ कहने जा रही
हूँ, वह सिर्फ मेरी सलाह है, सास के नाते आदेश नहीं
फिर भी उम्मीद है तुम उस पर विचार करोगी...और
हो सका तो मानोगी भी...'
-" बोलिए, माँजी ?'
"शिखा, तुम्हारे देवर पंकज की शादी है। वह कोई
गैर नहीं, तुम्हारे पति का सगा भाई है। तुम दोनों का
व्यापार अलग है, घर अलग है, कुछ भी तो साझा नहीं
है फिर भी तुम लोगों के बीच मधुर संबंध नहीं हैं
बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि संबंध टूट चुके
हैं। मैं तो समझती हूँ कि अलग-अलग रह कर संबंधों को
निभाना ज्यादा आसान हो जाता है। वैसे उसकी
गलती क्या है ? बस यही कि उसने तुम दोनों को इस
नए शहर में बुलाया...अपने साथ रखा और नए सिरे से
व्यापार शुरू करने को प्रोत्साहित किया।.... हो
सकता है, उसके साथ रहने में तुम्हें कुछ परेशानी हुई
हो...एक-दूसरे से कुछ शिकायतें भी हों किंतु इन
बातों से क्या रिश्ते समाप्त हो जाते हैं ? उसकी
सगाई में तो तुम नहीं आई थीं किंतु शादी में जरूर
आना ...बहू का फर्ज परिवार को जोड़ना होना
चाहिए।'
"तो क्या मैंने रिश्तों को तोड़ा है ? पंकज ही
सब जगह हमारी बुराई करते फिरते हैं। लोगों से यहाँ
तक कहा है कि "मेरा बस चले तो भाभी को गोली
मार दूँ..उसने आते ही हम दोनों भाईयों के बीच दरार
डाल दी।'... माँजी, दरार डालने वाली मैं कौन
होती हूँ.... असल में पंकज के भाई ही उनसे खुश नहीं
हैं। मुझे तो अपने पति की पसंद के हिसाब से चलना
पड़ेगा..वह कहेंगे तो आ जाऊँगी।'
देखो, मैं यह तो नहीं कहती कि तुमने रिश्ते
को तोड़ा है लेकिन कभी जोड़ने का प्रयास भी
नहीं किया। रही बात लोगों के कहने की तो कुछ
लोगों का काम यही होता है...वे इधर-उधर की झूठी
बातें करके परिवारों में, संबंधों में फूट डालते रहते हैं और
झगड़ा करा कर मजा लूटते हैं...तुम्हारी गलती बस
इतनी है कि तुमने दूसरों की बातों पर विश्वास कर
लिया... देखो शिखा, मैंने आज तक कभी तुम्हारे
सामने चर्चा नहीं की किंतु आज कह रही हूँ, तुम्हारी
शादी के बाद किसी ने हमसे कहा था -" आप कैसे घर
की लड़की को बहू बना कर लाए हैं।सुना है कि इस
की भाभी को दहेज के लिए सब ने मिल कर बहुत
सताया था ..परिवार के सभी लोगों का नाम
हत्या के सिलसिले में पुलिस में दर्ज था।.. कुँआरी
लड़की है, शादी में दिक्कत आएगी, यही सोच कर
रिश्वत खिला कर उसका नाम, घर वालों ने उस केस
से निकलवाया था।'....
अगर शादी से पहले हमें यह बात पता चलती
तो शायद हम सच्चाई जानने का प्रयास भी करते
लेकिन तब तक तुम बहू बन कर हमारे घर आ चुकी
थीं।..हमने कहने वाले को फटकारते हुए कहा था--
"शिखा अब हमारे घर की बहू है, आपको हम से इस तरह
की बात नहीं कहनी चाहिए...वैसे भी आज कल तो
यह फैशन सा हो गया हैं कि लड़की की ससुराल में न
पटे या किसी वजह से वह आत्महत्या करले तो पूरे
परिवार को दहेज के लिए सताने या हत्या के आरोप
में फँसा दो।'... शिखा यह सब पुरानी बातें बता कर
मैं तुम्हें दुखी नहीं करना चाह रही बल्कि समझाना
चाह रही हूँ कि आँखें बंद करके लोगों की बात पर
विश्वास नहीं कर लेना चाहिए.. खैर मैंने तुम्हें पंकज
की शादी में आने के लिए फोन किया था...मानना,
न मानना तुम्हारी मर्जी पर निर्भर करता है।"
इतना कह कर माँ ने फोन काट दिया था।
माँ ने कई बार हम दोनो भाइयों के खराब रिश्तों
को लेकर मुझे भी समझाने की कोशिश की थी किंतु
मैंने उनकी पूरी बात कभी नहीं सुनी बल्कि उन पर
यही दोषारोपण करता रहा कि वह मुझ से ज्यादा
पंकज को प्यार करती हैं इसलिए उन्हें मेरा ही दोष
नजर आता है, पंकज का नहीं। इस पर वह हमेशा यहाँ से
रोते हुए ही लौटी थीं।
लेकिन सच्चाई तो यह है कि मैं खुद भी पंकज के
खिलाफ था। हमेशा दूसरों की बातों पर विश्वास
करता रहा। इस तरह हम दोनों भाईयों के बीच खाई
चौड़ी होती गई लेकिन आज फोन पर की गई माँ की
बातें सुन कर मैं कुछ हद तक उनसे सहमत हुआ हूँ।माँ यहाँ
नहीं रहती । शादी की वजह से ही यहाँ आई हुई है।
वह हम दोनों भाइयों के बीच अच्छे संबंध न होने की
वजह से बहुत दुखी रहतीं है। इसीलिए यहाँ बहुत कम
आतीं है।
लोग सही कहते हैं, अधिकतर पति
पारिवारिक रिश्तों को निभाने के मामले में पत्नी
पर निर्भर हो जाते हैं। उसकी नजरों से ही अपने
रिश्तों का मूल्यांकन करने लगते हैं। शायद यही वजह
है, पुरुष अपने माता-पिता, भाई-बहनों आदि से दूर
होते जाते हैं और ससुराल वालों के नजदीक होते
जाते हैं।दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि
महिलाएँ, पुरुषों की तुलना में अपने रक्त संबंधों के
प्रति अधिक वफादार होती हैं। इसीलिए अपने
पीहर वालों से उनके संबंध मधुर बने रहते हैं बल्कि कड़ी
बन कर वे पतियों को भी अपने परिवार से जोड़ने का
प्रयास करती रहती हैं। वैसे पुरुष का अपने ससुराल से
जुड़ना गलत नहीं है। गलत है तो यह कि पुरुष रिश्तों में
संतुलन नहीं रख पाते। वे नए परिवार से तो जुड़ते हैं
किंतु धीरे-धीरे अपने परिवार से दूर होते चले जाते हैं।
भाई-भाई में, भाई-बहनों में कहा सुनी कहाँ नहीं
होती लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं होता कि
संबंध समाप्त कर लिए जाएँ। मेरे साथ भी यही हुआ।
जाने-अनजाने में पंकज से ही नहीं मैं अपने परिवार के
अन्य सदस्यों से भी दूर होता चला गया।सही मायने
में देखा जाए तो संपन्नता व कामयाबी के जिस
शिखर पर बैठ कर मैं व मेरी पत्नी गर्व महसूस कर रहे है,
उसकी जमीन मेरे लिए पंकज ने ही तैयार की थी।
उसके पूर्ण सहयोग व प्रोत्साहन के बिना अपनी
पत्नी के साथ मैं इस अजनबी शहर में रहने व अल्प पूँजी
से नए सिरे से व्यवसाय शुरू करने की बात सोच भी
नहीं सकता था। उसका आभार मानने के बदले मैंने उस
रिश्ते को दफन कर दिया। मेरी उन्नति में मेरे ससुराल
वालों का एक प्रतिशत भी योगदान नहीं था किंतु
धीरे-धीरे वही मेरे नजदीक होते गए। दोष शिखा का
नहीं, मेरा था। मैं ही अपने निकटतम रिश्तों के प्रति
ईमानदार नहीं रहा। जब मैंने ही उनके प्रति उपेक्षा
का भाव अपनाया तो मेरी पत्नी शिखा भला उन
रिश्तों की कद्र क्यों करती ?
समाज में साथ रहने वाले मित्र, पड़ोसी,
परिचित सब हमारे हिसाब से नहीं चलते। हममें मतभेद
भी होते हैं, एक-दूसरे से नाखुश भी होते हैं, आगे-पीछे
एक-दूसरे की आलोचना भी करते हैं लेकिन फिर भी
संबंधों का निर्वाह करते हैं। उनके दुख-सुख में शामिल
होते हैं फिर अपनों के प्रति ही हम इतने कठोर क्यों
हो जाते हैं ? उनकी जरा जरा सी त्रुटियों को बढ़ा
चढ़ा कर क्यों देखने लगते हैं ? कुछ बातों को
नजरअंदाज क्यों नहीं कर पाते ? तिल का ताड़ क्यों
बना देते हैं ?
मैं सोचने लगा, पंकज मेरा सगा भाई है यदि
जाने-अनजाने उसने कुछ गलत किया या कहा भी है
तो आपस में मिल-बैठ कर मतभेद मिटाने का प्रयास
भी तो कर सकते थे। गलत फहमियों को दूर करने के
बदले हम रिश्तों को समाप्त करने के लिए कमर कस लें,
यह तो समझदारी नहीं है। असलियत तो यह है कि
कुछ शातिर लोगों ने दोस्ती का ढोंग रचाते हुए हमें
एक-दूसरे के विरुद्ध भड़काया. हमारे बीच की खाई
को गहरा किया। हमारी नासमझी की वजह से वे
अपनी कोशिश में कामयाब भी रहे क्योंकि हमने
अपनों की तुलना में गैरों पर अधिक विश्वास किया।
मैंने निर्णय कर लिया कि अपने फैसले मैं खुद लूँगा।
पंकज की शादी में शिखा जाए या न जाए किंतु मैं
समय पर पहुँच कर भाई का फर्ज निभाऊँगा। उसकी
सगाई में भी शिखा की वजह से ही मैं तब पहुँच पाया
जब प्रोग्राम समाप्त हो चुका था।सगाई वाले दिन
मैं जल्दी ही दुकान बंद करके घर आ गया था लेकिन
शिखा ने कलह शुरू कर दी थी। वह पंकज के प्रति
शिकायतों का पुराना पुलिंदा खोल कर बैठ गई थी।
उसने मेरा मूड इतना खराब कर दिया था कि जाने
का उत्साह ही ठंडा पड़ गया। मैं बिस्तर पर पड़ा
पड़ा सो गया था। जब नींद खुली तो रात के दस बज
रहे थे। मन अंदर से कहीं कचोट रहा था कि तेरे सगे
भाई की सगाई है और तू यहाँ घर में पड़ा है। फिर मैं
बिना कुछ विचार किए देर से ही सही, पंकज के घर
चला गया था।
मानव का स्वभाव है कि अपनी गलती न मानकर
दोष दूसरे के सिर मढ़ देता है जैसे कि यह दोष मैंने
शिखा के सिर मढ़ दिया.... ठीक है, शिखा ने मुझे
रोकने का प्रयास अवश्य किया था किंतु मेरे पैरों में
बेड़ी तो नही डाल दी थीं । दोषी मैं ही था। वह
तो दूसरे घर से आई है। नए रिश्तों में एकदम से लगाव
नहीं होता। मुझे ही कड़ी बनकर उसको अपने परिवार
से जोड़ना चाहिए था जैसे उसने मुझे अपने परिवार से
जोड़ लिया है...।
शिखा की सिसकियों की आवाज से मेरा
ध्यान भंग हुआ। वह बाहर वाले कमरे में थी। वह नहीं
जानती थी कि मैं स्नान करके बाहर आ चुका हूँ और
दूसरे फोन पर माँ व उसकी पूरी बातें सुन चुका हूँ। मैं
सहजता से बाहर गया और उससे पूछा-- "शिखा, रो
क्यों रही हो ?'
"मुझे रुलाने का ठेका तो तुम्हारे घर वालों ने ले
रखा है। अभी आपकी माँ का फोन आया था...
आपको तो पता है न, मेरी भाभी ने आत्महत्या की
थी। आपकी माँ ने आरोप लगाया है कि भाभी की
हत्या की साजिश में मैं भी शामिल थी " कह कर
वह जोर जोर से रोने लगी।
"बस, यही आरोप लगाने के लिए माँ फोन किया
था ?'
"उनके हिसाब से मैंने रिश्तों को तोड़ा है...फिर भी
वह चाहती हैं कि मैं पंकज की शादी में जाऊँ। मैं इस
शादी में हर्गिज़ नहीं जाऊँगी, यह मेरा अंतिम
फैसला है...तुम्हें भी वहाँ नहीं जाना चाहिए।'
"सुनो, हम दोनों अपना-अपना फैसला करने के
लिए स्वतंत्र हैं। मैं चाहते हुए भी तुम्हें पंकज के यहाँ
चलने के लिए बाध्य नहीं करना चाहता किंतु अपना
निर्णय लेने के लिए मैं स्वतंत्र हूँ..मुझे तुम्हारी सलाह
नहीं चाहिए।'
"तो तुम जाओगे ?..... तुम्हारे व मेरे खिलाफ वह
जगह-जगह इतना जहर उगलता फिरता है फिर
भी जाओगे ?"
" उसने कभी मुझ से या मेरे सामने किसी से ऐसा
नहीं कहा। लोगों के कहने पर हमें पूरी तरह विश्वास
नहीं करना चाहिए। लोगों के कहने की परवाह मैं ने
की होती तो तुम्हें कभी भी वह प्यार न दे पाता,
जो मैंने तुम्हें दिया है। अभी तुम माँ द्वारा आरोप
लगाए जाने की बात कर रही थीं। पर वह आरोप
उन्होंने नहीं लगाया...लोगों ने उन्हें ऐसा बताया
होगा। आज तक मैंने भी इस बारे में तुम से कुछ पूछा
या कहा नहीं...आज कह रहा हूँ..तुम्हारे ही कुछ
परिचितों ने मुझ से भी कहा था कि शिखा बहुत तेज
मिजाज की लड़की है। अपनी भाभी से भी उसकी
नहीं पटती थी। सब के जुल्मों से परेशान होकर उसकी
भाभी की मौत हुई थी। पता नहीं वह हत्या थी या
आत्महत्या'...लेकिन मैंने उन लोगों की परवाह नहीं
की...'
" क्या तुम भी मुझे अपराधी समझते हो ? मैं तो
बस इतना जानती हूँ कि यह हमारे कुछ दुश्मनों की
साजिश थी।... हमारे परिवार को फसाया गया
था..इसी वजह से मेरी शादी में कई बार रुकावटें
आर्इं।'
"मैं तुम्हें अपराधी नहीं समझता...न ही मैंने कभी
उन लोगों की बातों पर विश्वास किया था। अगर
विश्वास किया होता तो तुम से शादी न करता। पर
हम यह क्यों नहीं सोचते कि जैसे वह सब बातें पूरी
तरह से सच नहीं थीं वैसे ही पंकज के खिलाफ हमें
भड़काने वालों की बातें भी झूठी हो सकती है, उन्हें
हम सत्य क्यों मान रहे हैं ?'
"लेकिन मुझे नहीं लगता कि ये बातें झूठी हैं।....
खैर, लोगों ने सच कहा हो या झूठ, मैं तो उन की
शादी में नहीं जाऊँगी। एक बार भी उन्होंने मुझ से
शादी में आने को नहीं कहा।'
"कैसे कहता ?..सगाई पर आने के लिए तुम से
कितना आग्रह कर के गया था। यहाँ तक कि
उसने तुमसे अनजाने में हुई किसी गल्ती के लिए माफी
भी माँगी थी फिर भी तुम नहीं गर्इं। इतना घमंड
अच्छा नहीं...उसकी जगह मैं होता तो मैं भी
दोबारा बुलाने न आता।'
" सब नाटक था .....लेकिन आज तुम्हें क्या हो
गया है ?... आज तो पंकज की बड़ी तरफदारी कर रहे
हो ?'
तभी द्वार की घंटी बजी । पंकज आया था। उसने
शिखा से कहा-- "भाभी, भैया से तो आपको साथ
लाने की कह चुका हूँ, आप से भी कह रहा हूँ। आप
आएँगी तो मुझे खुशी होगी। अब मैं चलता हूँ, बहुत
काम करने को पड़े हैं।'
पंकज प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना लौट
गया। मैंने पूछा-- "अब तो तुम्हारी यह शिकायत भी
दूर हो गई कि तुम से उसने आने को नहीं कहा.. अब
क्या इरादा है ?'
"इरादा क्या होना है...हमारे पड़ोसियों से तो
एक सप्ताह पहले ही आने को कह गया था। मुझे एक
दिन पहले न्योता देने आया है। असली बात तो यह है
कि मेरा मन उनसे इतना खट्टा हो गया है कि मैं
जाना नहीं चाहती...मैं नहीं जाऊँगी।'
"तुम्हारी मर्जी' कह कर मैं दुकान पर चला आया।
थोड़ी देर बाद ही शिखा का फोन आया --
'सुनो, एक खुशखबरी है... मेरे भाई हिमांशु की शादी
तय हो गई है...दस दिन बाद ही शादी है।...उसके बाद
कई महीने तक शादियाँ नहीं होंगी...इसीलिए
जल्दी शादी करने का निर्णय लिया है।'
"बधाई हो, कब जा रही हो ?'
"पूछ तो ऐसे रहे हो, जैसे मैं अकेली ही जाऊँगी..तुम
नहीं जाओगे ?'
"तुमने सही सोचा, तुम्हारे भाई की शादी है, तुम
जाओ, मैं नहीं जाऊँगा।'
"यह क्या हो गया है तुम्हें...कैसी बातें कर रहे हो ?
मेरे माँ-बाप की जग-हँसाई कराने का इरादा है
क्या ? सब पूछेंगे, दामाद क्यों नहीं आया तो क्या
जवाब देंगे ? लोग कई तरह की बातें बनाएँगे..'
"बातें तो लोगों ने तब भी बनाई होंगी जब एक ही
शहर में रहते हुए सगी भाभी होकर भी तुम देवर की
सगाई में नहीं गर्इं..और अब शादी में भी नहीं
जाओगी। जग-हँसाई क्या यहाँ नहीं होगी या फिर
इज्जत का ठेका तुम्हारे खानदान ने ही ले रखा
है...हमारे खानदान की तो कोई इज्जत ही नहीं है ?'
"मत करो तुलना दोनों खानदानों की...मेरे घर वाले
तुम्हें बहुत प्यार करते हैं...क्या तुम्हारे घर वाले मुझे
वह इज्जत व प्यार दे पाये ?'
"हरेक को इज्जत व प्यार अपने व्यवहार से मिलते है।'
"तो क्या तुम्हारा अंतिम फैसला है कि तुम मेरे भाई
की शादी में नहीं जाओगे ?'
"अंतिम ही समझो यदि तुम मेरे भाई की शादी में
नहीं जाओगी तो मैं भला तुम्हारे भाई की शादी में
क्यों जाऊँगा ?'
"अच्छा, तो तुम मुझे ब्लैकमेल कर रहे हो ?' कह कर
शिखा ने फोन रख दिया।
दूसरे दिन पंकज की शादी में शिखा को आया देख
कर माँजी का चेहरा खुशी से खिल उठा था। पंकज
भी बहुत खुश था।
माँ ने स्नेह से शिखा की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा
-- "शिखा, तुम आ गर्इं, मैं बहुत खुश हूँ..मुझे तुम से यही
उम्मीद थी।'
"आती कैसे नहीं, मैं आपकी बहुत इज्जत करती हूँ। आप
के आग्रह को कैसे टाल सकती थी ?'
मैं मन ही मन मुस्कुराया। शिखा किन
परिस्थितियों के कारण यहाँ आई, यह तो बस मैं ही
जानता हूँ। उसके ये संवाद भले ही झूठे थे पर अपने सफल
अभिनय द्वारा उसने माँ को प्रसन्न कर दिया
था।... यह हमारे बीच हुए समझौते की एक सुखद
सफलता थी।

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