Tuesday 6 October 2015

The story- गुब्बारे

गुब्बारे
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"घर्र...घर्र...घर्र....घर्र..." की आवाज करके चल रहा
पंखा बंद हो गया। वातावरण में शांति के बावजूद
अब्दुल्ला की नींद खुल गई। गर्मी के मारे वह पसीने में
तर हो गया। ऐसा रोज ही होता है। बड़े सबेरे पावर
कट होने से पंखा बंद हो जाता है और गर्मी लगने से
उसकी नींद खुल जाती है।
अब्दुल्ला उठकर बैठ गया। उसका ध्यान गुब्बारों की
तरफ गया। गुब्बारे झुर्रीदार हो गए हैं। वह मुस्कुराया,
गुब्बारे भी बूढ़े हो गए, बिल्कुल अब्बू की तरह। ऊपर
वाले आले में गौरैया के बच्चों की चीं-चीं शुरू हो गई
है। वहाँ उसने घोंसला बना रखा है। अब्दुल्ला हमेशा
सोचता है, गौरैया कभी गुब्बारे पर चोंच मार दे तो.!
मगर गौरेया ने आज तक कभी ऐसा नहीं किया है। वह
जानती है शायद, समझाती है। इसीलिए तो।
अब्दुल्ला अपने झोपड़े से बाहर आ गया। उसकी
निगाह आसमान पर पड़ी। आसमान बिल्कुल उजला
है। उसे याद आया, जब वह बहुत छोटा था, तब बस्ती
में सुबह सबके घरों के बाहर पत्थर के कोयलों की
सिगड़ी जला करती थी और आसमान में धुएं के बादल
हो जाया करते थे। मगर अब ऐसा नहीं होता। सबने
बिजली के चूल्हे (हीटर) ले लिए हैं। कोई खर्चा नहीं,
बिजली मुफ्त जो है।
वह मुख्य सड़क पर आ गया। सामने दशहरा मैदान है।
कुछ लोग सुबह-सुबह कबूतरों को दाना डालकर
परलोक सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, तो कुछ सुबह
की सैर करते हुए सेहत बनाने की। जब भी शहर में
रामलीला होती है, इसी मैदान में चला करती है देर
रात तक। चुनाव के दिनों में भाषणबाजी भी देर रात
तक चलती है। कभी-कभार अब्दुल्ला भी चला जाता
है। भाषण देने वालों में वह किसी को भी नहीं
जानता है और न ही उसकी इसमें रुचि रहती है। वह
तो यह देखने जाता है कि भीड़ है तो गुब्बारे बिक
सकेंगे या नहीं। यह पक्का यकीन होने पर कि गुब्बारे
नहीं बिकेंगे, वह लौट आता। उसे भाषणबाजी जरा
भी अच्छी नहीं लगता, क्योंकि गुब्बारे नहीं बिकते।
और भला बिकते भी तो कैसे? बच्चे जो नहीं आते
भाषण सुनने। हाँ, मेलों में अब्दुल्ला को खूब आनंद
आता है क्योंकि खूब गुब्बारे बिकते हैं।
राष्ट्रीय त्यौहारों पर वह गुब्बारे की जगह झंडे
बेचता है, खूब बिकते हैं। देषप्रेम के कारण या खिलौने
की तरह खेलने के लिये या फिर फैशन में, यह तो वह
आज तक नहीं समझ पाया है। और यह समझने की
उसकी इच्छा भी नहीं है। उसे तो अपनी कमाई से
मतलब है।
कमाई से अब्दुल्ला को याद आया, रात में गणेश
विसर्जन जुलूस निकलेगा, पूरी रात खूब कमाई होगी।
दोपहर को ही निकलना होगा। वह भीतर आकर
तैयारी में जुट गया।
अम्मी की मदद से अब्दुल्ला ने ढेर सारे गुब्बारे तैयार
किये। अब्बू खाट पर पड़े-पड़े देखते रहे। जब दंगे में उनके
दोनों हाथ और एक पैर कटा था, तब अब्दुल्ला की
की छटी क्लास की परीक्षा चल रही थी। कुछ पर्चे
हो चुके थे मगर इस हादसे के बाद उसके सारे पर्चे
खराब हो गए। उसका मन ही नहीं लगा पढ़ने में।
नतीजा आया तो वह फेल था, वह उन सभी पर्चों में
फेल था जो उस दुर्घटना के बाद हुए थे। अम्मी ने
किसी तरह रुपयों की जुगाड़ करके उसकी पढ़ाई
जारी रखने की कोषिष की पर इसके बाद उसका मन
लगा ही नहीं। अम्मी रात-दिन मेहनत करके रुपयों
का जुगाड़ करती उससे वह अपराध बोध से भर जाता।
वह क्लास में टीचर की बात सुन ही नहीं पाता, बस
आंखें फाड़े शून्य में देखा करता और अकसर सोचता कि
किसी तरह खूब रुपए कमाकर अम्मी को खूब आराम
दे।
उन्हीं दिनों उसके पुराने जूते छोटे हो गए थे जो स्कूल
ड्रेस का एक हिस्सा थे। अम्मी नए जूते नहीं ला
सकी और क्लास टीचर के एक-दो बार कहने के बाद
प्रिंसिपल साहब ने अब्दुल्ला से साफ-साफ कह
दिया था "स्कूल के नियमों के अनुसार जूते न पहनकर
आने से तो वह स्कूल न आए तो ज्यादा बेहतर होगा।"
उसके बाद अब्दुल्ला स्कूल गया ही नहीं। अम्मी को
उसने यह बात कई दिनों तक नहीं बताई और स्कूल
जाने के समय पर काम की तलाश में इधर-उधर घूमा
करता। मगर एक दिन अम्मी को पता चल ही गया।
उसने बहुत कोशिश की कि अम्मी को स्कूल न जाने
का असली कारण न बताए। मगर जब उन्होंने अब्बू की
कसम दी तो उसे बताना ही पड़ा। असलियत जानकर
वे फूट-फूटकर रो पड़ी। उन्होंने कहा कि अब्बू को न
बताया जाए। मगर उन्हें भी जल्दी ही पता चल गया
कि अब्दुल्ला स्कूल नहीं जाता। पर क्यों नहीं
जाता? उन्होंने यह कभी नहीं पूछा। अब्दुल्ला ने
महसूस किया कि वे यह बात जानकर भीतर ही भीतर
बहुत दुखी हैं पर उनका कुछ न कहना अब्दुल्ला को और
भी ज्यादा दुखी किए था। उसे याद था कि जब वह
पहली बार स्कूल गया था तब अब्बू कितने खुष थे। वे
उसे साईकिल पर आगे बिठाकर बस्ता, स्कूल की ड्रेस,
जूते, कापी-किताबें दिलवाकर लाए थे। अब्दुल्ला
भी मन लगाकर पढ़ता रहा और अच्छे अंकों से पास
होता रहा। जब उसका रिज़ल्ट आता अब्बू की आंखें
खुशी से भीग जाती थी।
आंखें तो अब भी भीगी थी, अब्बू की। मगर खुशी से
नहीं बेबसी से।
तबसे अब्दुल्ला और अम्मी मिलकर घर की गाड़ी
चला रहे हैं। पड़ोस के करीम चाचा की दर्जी की
दुकान है। वहीं से अम्मी काज-बटन, तुरपन का काम ले
आती हैं।
गुब्बारे तैयार करके वह निकला। उसके हाथ में हैं
गुब्बारे। लाल, हरे, नीले, पीले, कुछ सफेद पर चित्तियाँ
भी हैं। तरह-तरह के गुब्बारे, कोई लम्बा, कोई गोल,
कोई सेवफल जैसा, तो कोई नाशपती जैसा, कोई
बड़ा तो कोई छोटा ।
अब्दुल्ला जुलूस वाले मैदान की तरफ पैदल चलने लगा।
चलते-चलते उसे पुरानी बातें याद आ गईं। जब वह छोटा
था और अब्बू के साथ गणेश विसर्जन जुलूस में उनकी
ऊँगली पकड़ कर जाया करता था। अब्बू खूब तेज
चलते। उनके साथ चलने के लिए अब्दुल्ला को दौड़ना
पड़ता। अब्दुल्ला को याद है वे लोग दोपहर से ही
निकल जाते थे। अब्बू गुब्बारे बेचने के लिए मौके की
जगह तलाशते। पुलिस वाले हड़काते तो अब्बू हाथ
जोड़ते। भीड़ जमा होने के पहले कुत्ते आते, भौचक्के से
देखते। कोई लात मारकर भगा देता तो आं...उं...करते
भाग जाते। खोमचे वालों के इर्द-गिर्द खूब घूमते। जब
उनके इर्द-गिर्द भीड़ जमा होती, तो कुत्ते जूठे दोने-
पत्तल चाटने में लग जाते और खोमचे वाले व्यस्त रहते
चाट पकौड़ी की बिक्री में। गरमागरम मूँगफली
बिकती, रेत में सिकती मूँगफली की खुश्बू भी चाट
की खुश्बू में घुल कर वातावरण में फैली रहती। अब्बू से
पैसे लेकर अब्दुल्ला दोनों चीजें खाता।
धीरे-धीरे खूब भीड़ जमा हो जाती। चारों तरफ
लोग ही लोग, हल्ला, सिर ही सिर। टावरों पर बैठे
पुलिसवाले बच्चों के गुमने-मिलने की जानकारी
माईक पर देते तो अब्बू इधर-उधर सिर घुमाकर देखते और
अब्दुल्ला को अपनी जगह पाकर निश्चिंत हो जाते।
अब्दुल्ला यह सब देखता और अब्बू सिक्के खनकाते। तब
अब्बू पूरी रात गुब्बारे बेचते। उनके मना करने बावजूद
भी अब्दुल्ला बीच-बीच में उनकी मदद करता।
गुब्बारों के अलावा उनके पास पुंगियाँ भी होती
थी, तरह-तरह की पुंगियां। किसी पुंगी के बजाने पर
छोटा सा सांप फन उठाता तो किसी को बजाते
ही उसके सिरे पर लगा छोटा सा गुब्बारा फूल
जाता। उनके पास बांसुरी भी होती। पुंगी और
बांसुरी जुलूस की भीड़ में बज-बजकर पूरे शोर में अलग
ही सुनाई देती। अब्बू-अम्मी और भी बहुत कुछ बनाते।
बाँस की छिलपियों को अब्बू रंगते, फिर उन्हें कैंची
की तरह चिपकाकर आखिरी सिरे पर कागज का
सांप का फन लगाकर सांप बनाते। कागज के सांपों
पर घिर्री लगाकर, धागा बाँध कर जमीन पर चलने
वाले सांप तो अब्दुल्ला ही बना लेता।
उसे जुलूस की रात का बेसब्री से इंतजार होता। पूरी
रात अखाड़ों और झाँकी से भरी होती। अखाड़ों में
ढोल-ढमाके बजते, भाले, तलवार वगैरह से अखाड़े वाले
अपनी वीरता दिखाते। कोई हाथों के बल उल्टा
चलता, कोई कलाबाजियाँ खाता, कोई लाठी
लेकर घुमाता, कोई तलवारबाजी दिखाता। चाँदी
जैसी चम-चम करती तलवार उनके इशारों पर नाचती।
उन्हें देखने के लिये भीड़ का गोलाकार घेरा बन
जाता। सड़क पर से अब्दुल्ला को कुछ नहीं दिखता।
कई बच्चों को उनके पिता कंधों पर बैठाकर यह सब
दिखाते। तब अब्दुल्ला अब्बू की तरफ देखता, पर वे
बिक्री में व्यस्त रहते और जैसे ही उनका ध्यान इस
तरफ जाता, तब वे उसे किसी घर के ओटले पर खड़ा कर
देते। कभी उचकता, कभी पंजों के बल खड़ा होता
अब्दुल्ला। कुछ देख पाता, कुछ छूट जाता। तब इन छूटे
हुए खेलों को नहीं देख पाने का मलाल खूब रहता उसे
जैसे कोई बहुत कीमती चीज छूट गई हो। फिर तो
धीरे-धीरे वक्त के साथ चीजों के छूटने का मलाल भी
छूटता गया। मिला तो ठीक नहीं मिला तो ठीक।
अब्दुल्ला अपनी मस्ती में डूबा रहता।
रात भर जुलूस निकलता। जुलूस जब शुरू होता तो
आसमान में चाँद तारे होते, और खतम होते-होते सबेरा
हो जाता। तब चाँद और सूरज एक साथ होते आसमान
में। पूर्व में सूरज और पश्चिम में चाँद। उस सुबह दोनों
एक जैसे लगते। बस सूरज का गोला बड़ा होता, चाँद
का छोटा। चाँद देखने के लिये सिर को थोड़ा सा
उठाना पड़ता। सूरज बिना सिर उठाए ही दिख
जाता। यह दृश्य तो आज भी नहीं बदला।
उसे याद आया तब वह अब्बू से पूछा करता था, "अब्बू
चाँद में क्या है?"
अब्बू कहते "गुब्बारा।"
वह हँसता "अब्बू मजाक करते हैं आप तो । बताईये
ना !"
अब्बू फिर वही दोहरा देते और अब्दुल्ला हँसते-हँसते
दोहरा हो जाता और उसे हँसते देख अब्बू मुस्काते।
जुलूस की उस रात खूब कमाई होती। लौट कर
अब्दुल्ला, अब्बू के साथ दिन भर सोता।
गणेश विसर्जन जुलूस तो अब भी निकलता है, मगर
मिलें बंद पड़ी हैं। अब्बू कहते हैं "कपड़ा तो खूब बिकता
था मिलों का, दूर-दूर तक जाता था। सूती कपड़ों के
लिये देश भर में अच्छा खासा नाम फैला था शहर
का। मगर फिर भी ये मिलें पता नहीं क्यों बंद हो
गई?"
"अब यह दिन आता है और यूँ ही निकल भी जाता है।
बंद मिलों के मजदूर भी जैसे-तैसे उत्साह जुटाकर जुलूस
निकालते हैं, पर अब वह रौनक नहीं रहती और गुब्बारे
भी अब पहले की तरह नहीं बिकते। पहले तो आस-पास
के गाँवों के लोग सुबह से ही आ जाते थे। खूब भीड़
होती थी।" यही सब सोचते हुए अब्दुल्ला वहाँ पहुँच
गया जहाँ से जुलूस निकलने वाला था।
पर...आज तो कोई खास चहल-पहल ही नहीं दिख
रही है। सब कुछ ठंडा सा। वह वहीं पहुँच गया, जहाँ
उसके अब्बू खड़े हुआ करते थे। धीरे-धीरे, सुस्त चाल से
भीड़ जमा हो रही है पर पहले वाली बात नहीं है।
चाट-पकौड़ी की दुकानें हैं, गोल गप्पे के ठेले हैं,
कुल्फी भी है। बच्चे कुल्फी खाने की जिद कर रहे हैं।
किसी को कुल्फी मिल रही है, किसी को डांट तो
किसी को समझाईश।
"कुल्फी खाने से सचमुच सर्दी हो जाती है क्या?"
अब्दुल्ला सोचता है "पता नहीं! मैनें तो कभी खाई
ही नहीं। मगर कड़कड़ाती सर्दी में बगैर स्वेटर के देर
रात तक बाजार में खड़े हुए और देर रात को घर जाते
हुए सर्दी नहीं लगती तो कुल्फी से भला क्या
होगी।" अब्दुल्ला मन ही मन हँसता है।
कुछ बच्चों के माँ-बाबूजी कुल्फी से बचाने के लिए
उन्हें गुब्बारों के पास ले आते हैं। कोई बालक लाल
गुब्बारा पसंद करता है तो कोई नीला। कोई सेवफल
जैसा तो कोई नाशपाती जैसा। गुब्बारा खेलते हुए
किसी का गुब्बारा आसमान में उड़ जाता है तो
किसी का फूट जाता है। आसमान में गुब्बारा उड़ने
पर कोई बालक खुश होता तो कोई रोता। किसी के
माँ-बाबूजी उन्हें दूसरा गुब्बारा दिला देते तो कोई
चतुर माँ-बाबूजी बच्चे को दूसरी चीज का भुलावा दे
देते। कोई समझदार, दुनियादार अपने बच्चों की
कलाई पर गुब्बारा बंधवा लेते, न उड़ता, न फूटता।
जुलूस देर रात ही खतम हो गया, सुबह तक नहीं चला।
मगर अब्दुल्ला के सारे गुब्बारे बिक गये। उसके हाथ
खाली जाते हैं और जेब में रुपये आ जाते हैं। वह जेब में
रुपये लिये घर की तरफ लौटता है।
मेला चाहे कर्बला मैदान का हो या दशहरा मैदान
का, चाहे उर्स का या फिर गणेश विसर्जन का जुलूस
हो। अब्दुल्ला के गुब्बारे खूब बिकते हैं। कोई अब्दुल्ला
का जाति- धर्म नहीं पूछता। सभी धर्म वाले
बेझिझक गुब्बारे पैसे देते हैं और गुब्बारा खरीदते हैं। और
बच्चे भी तो सब एक जैसे ही होते हैं। सारे के सारे एक
जैसे जिद करते हैं।
रास्ता सुनसान है। अब्दुल्ला का ध्यान आसमान की
तरफ जाता है, काले-काले आसमान में चाँदी की
परात जैसा चाँद चमक रहा हैं। अब्दुल्ला चाँद की ओर
देखता हुआ चलता है। चाँद अब्दुल्ला के साथ-साथ
चलता है। अब्दुल्ला जेब से गुब्बारों का बचा धागा
निकालकर अपनी कलाई पर बाँध लेता है। चाँद भी
गुब्बारा बन जाता है। अब अब्दुल्ला के पास भी
गुब्बारा है, बेचने के लिए नहीं, उसके अपने खेलने के
लिए।
अब्दुल्ला खुष होकर घर पहुँचता है। चाँद के गुब्बारे का
धागा कलाई से खोल देता है और दरवाजे पर बाँध
देता है। उढ़का हुआ दरवाजा खोलकर भीतर आता है।
चाँद बाहर ही रह जाता है, अब्दुल्ला भीतर पहुँचता
है। अब्बू और अम्मी उसी की राह देख रहे थे। वह जेब से
रुपए निकाल कर अब्बू के सिरहाने पर रख देता है।
अम्मी अब्दुल्ला के लिए गरम-गरम रोटी बनाने लगती
है। रोटी की सौंधी खुश्बू से अब्दुल्ला की भूख जाग
जाती है। सफेद-सफेद, गोल-गोल रोटी पर गुलाबी
भूरी चित्तियाँ। अम्मी गरम-गरम फूली हुई रोटी
अब्दुल्ला की थाली में रखती है। गुब्बारा रोटी
बनकर अब्दुल्ला की थाली में चला आता है।
तभी अब्दुल्ला को चाँद के गुब्बारे की याद आती है।
वह दौड़कर बाहर जाने को होता है, पर आँगन में आते
ही उसकी निगाह आसमान पर जाती है, "अरे! इसे तो
मैं बाहर बाँधकर आया था।" अब्दुल्ला सोचता है
फिर भीतर आता है और कहता है "अम्मी! ये चाँद
बड़ा शैतान है।" वह थाली और पानी का गिलास
लेकर आँगन में आ गया। उसने देखा, चाँद पानी के
गिलास में उतर आया।
वह मुस्काया उसे कुछ याद आया। उसने अब्बू से पूछा
"अब्बू! चाँद में क्या है?"
अब्बू पहले की तरह बोले "गुब्बारा।"
"और गुब्बारे में?"
"पता नहीं।"
"मुझे पता है...गुब्बारे में रोटी है।" कहकर अब्दुल्ला
खिलखिला कर हँसा, अम्मी दर्द से मुसकाई मगर अब्बू
के आंख की कोर भीग गई।

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