Tuesday 6 October 2015

The story- एक नन्ही तितली आती तो है

एक नन्ही तितली
आती तो है
1 / 1
सुनहली शाम; महानगरीय बाज़ार जि़न्दगी की
रौनकों से भरा हुआ।
बात कुल इतनी-सी थी कि पति-पत्नी को तोहफ़े के
लिए एक ठीकठाक दाम की साड़ी ख़रीदनी थी
और वे अपना स्कूटर रोककर एक दुकान में घुसे।
भव्य शोरूम में दो क़दम बढ़ाते ही दोनों के
चेहरे एक भाव से अचकचाये; ग़लत जगह आ गये शायद;
पर वे दुकान के कर्मचारियों के ध्यानों की सीमा में
आ चुके थे और ‘आइये! आइये! क्या दिखायें?’ के
निमंत्रणों को ठुकराया जाना अब असम्भव था।
अपराधी भाव से वो जोड़ा मँहगे सोफ़े
जैसे स्टूलों पर बैठ गया। रंग उड़े-से चेहरे से नौजवान
पति ने एक नज़र अपनी दफ़्तर वाली शर्ट, काफ़ी
इस्तेमाल हो चुके पैंट, रैग्ज़ीन के बेल्ट और चमड़े की
सैंडिलों पर डाली; पर उससे भी ज़्यादा फ़ीका रंग
नवयुवती पत्नी के चेहरे का हो चला था; ठेले से ख़रीदे
पच्चीस रुपये वाले कंगन, कटपीस साड़ी सेन्टर से ली
भ्रामक मँहगी साड़ी, कम्पनी के सेल आॅफर वाली
चप्पलें और सोने के बारीक दानों का मंगलसूत्र...!
उसने साड़ी का पल्ला कंधे से आगे लाते हुए दूसरी तरफ
तक खींच लिया, कुछ इस तरह कि कंगन और मंगलसूत्र
अब नहीं दिख रहे थे; पर पति को उसकी पहनी एक-
एक चीज़ की क़ीमत जैसे इसी वक़्त याद आनी थी।
चैराहे पर तेज़ फोकस लाइट में खड़े होने सरीखा
महसूसते पति के पास चिर-परिचित झुंझलाहट थी,
‘‘कितनी बार कहा है, बाहर चलते समय ठीक से तैयार
हुआ करो! जब देखो तब कंजूसी! सस्ते पर मरना तुम कब
छोड़ोगी! ये कड़े क्यों पहन आईं? वो पाँच सौ रुपये
वाले कंगन क्या अलमारी में रखने के लिए ख़रीदे हैं?’’
वो तो शादियों-समारोहों में पहनने के लिये हैं या
जब रिश्तेदारी में जाना हो। इस तरह ज़रा-ज़रा
मौकों पर ख़राब कर लूँगी तो आप फिर कौन नये
दिलवा देंगें! - पत्नी बिल्कुल कहना ही चाहती थी
कि रह गई; दुकानदार उससे मुख़ातिब था,
‘‘क्या दिखाऊँ मैडम?’’
उत्तर पुरुष ने दिया,
‘‘साड़ी; गिफ़्ट में देने लायक।’’
दुकानदार ने नौकर को ऊँचाई से एक गड्डी उतारने
को कहा और पति-पत्नी आँखों को चैंधिया देने
वाली बेशक़ीमती साडि़यों से भरी दुकान को देखने
लगे। आगे शोकेस में जड़ाऊ लहँगों और साडि़यों के
खुले पल्ले सजे थे; दोनों ने ऐसी अनभिज्ञ-अनासक्त
नज़र से देखना शुरू किया जैसे पराये धर्म को देख-जान
रहे हों।
‘‘ये देखिये मैडम, ये बिल्कुल नया टेªंड है।’’
जगमगाती दूधिया रोशनियों के तले दुकानदार ने
पहली साड़ी फैलाई। आसमानी साड़ी पर जड़े
चमचमाते नग ऐसे दिख रहे थे जैसे ताज़ा आसमान पर
सैंकड़ों मार्निंग स्टार्स झिलमिला रहे हों।
पति-पत्नी के सधे चेहरों पर कोई भाव नहीं आया;
दुकानदार ने दूसरी साड़ी खोली।
‘‘इसे देखें, सूरत से ये माल सिर्फ़ हमारे यहाँ ही आया
है। ऐसी साड़ी आपको पूरे मार्केट में नहीं मिलेगी।’’
सब्ज़ साड़ी पर सुनहले मोतियों से बुन्दे टँके थे ऐसे जैसे
नर्म दूब में सोने के फूल खिले हों। एक अदृश्य ठंडी
साँस सीने में उठी और ढह गई; बिना दाम जाने ही
पति ने कहा,
‘‘थोड़ी रीज़नेवल रेट की साडि़याँ दिखाइये।’’
‘‘हमारे यहाँ की रेट्स मार्केट में सबसे ज़्यादा
रीज़नेवल हैं सर! ये साड़ी -आप कहीं भी तलाश लें-
चार-पाँच हज़ार से कम की नहीं मिलेगी जबकि हम
इसे सिर्फ़ अड़तीस सौ में बेचते हैं।’’
‘‘नहीं, हमें इससे कुछ कम की चाहिये।’’ क़ीमत सुनते ही
पति ने साड़ी के किनारे पर से उँगलियाँ हटा लीं जैसे
डर गया हो कि उसके छूने से सोने के फूल और मार्निंग
स्टार्स धूमिल पड़ जायेंगे और उसे कोई असम्भव
हजऱ्ाना भरना पड़ेगा।
दुकानदार ने कुछ कम ऊँचाई से दूसरी गड्डी उतरवाई
और इस बीच पत्नी उठकर शोकेस में सजी साडि़यों के
सामने आ खड़ी हुई।
एक-से-एक सुन्दर और जर्कबर्क साडि़यों-
लहँगों को उसकी आँखें इस तरह गहरे-गहरे निहार रही
थीं जैसे हरेक के कुल सौन्दर्य को जल्दी-जल्दी जी
लेना चाहती हों। कमउम्र स्त्री मुग्ध होने लगी;
सुनहला, ...लाल, ...नीला, ...पीली, ...किरमिज़ी,
...काला -हर रंग जैसे बोल रहा था और रंगों पर जड़े
हीरों-से नगों, मोतियों की लडि़यों, बारीक
सितारों और रेशमी धागों के काम ने साडि़यों को
दिल में उतर जाने वाला रूप दिया था। अपनेआप में
खड़ी स्त्री के चेहरे पर एक उदास मुस्कुराहट आकर
तिरोहित हो गई और वो लौटने ही लगी थी कि
शोकेस में दमकती अंतिम ख़ूबसूरती पर उसकी आँखें ठहर
गईं।
इधर दुकानदार ने पुरुष के आगे दूसरी गड्डी
खोली,
‘‘ ये एकदम नया कुमकुम प्रिन्ट है सर, ...वो फ़ेमस
टी.वी. सीरियल नहीं देखा आपने; उसमें यही साड़ी
पहनती है हीरोइन, ...मात्र बारह सौ की है।’’
‘‘इस यूनिक पीस पर नज़र डालिये, ऐसा मोरपंखी रंग-
डिजाइन-कपड़ा और रेट आपको कहीं नहीं मिलेगा
सर! ...अठारह सौ केवल!’’
‘‘शिफाॅन पर इस वर्क का तो कोई जवाब नहीं है
साहब! एकदम रेअर चीज़ है! ...नौ सौ पचास में ऐसी
साड़ी कहीं और मिल जाए तो हमसे मुफ़्त में ले
जाइयेगा!’’
इधर पति कह रहा है, ‘‘इससे कम रेन्ज की दिखाइये।’’
उधर पत्नी शोकेस के अंतिम परिधान के जादू-से
सौन्दर्य मंे बँध रही है। ...सुर्ख हरितिमा और गाढ़े
रक्त-से रंग पर महीन धूपिया सितारों की ऐसी
अद्भुत कशीदाकारी कि लगे जैसे स्वयं ईश्वर की
कृति हो; और किनारी पर जो जरी का काम था,
सो ऐसा मोहक जैसे विष्णु की माया! स्त्री बाकी
सब भूल गई और दिल की बात ज़्ाुबान तक अपनेआप
चली आई,
‘‘कितनी सुन्दर साड़ी है!’’
‘‘वो साड़ी नहीं है मैडम, लहँगा है।’’ दुकानदार ने -जो
अब तक अंदाज़ा लगा चुका था कि ग्राहक के बटुए में
कितनी जान है- बिना स्त्री की ओर देखे कहा।
‘‘ये लहँगा है!! इतना सिम्पल!! कितने का है?’’
‘‘दो हज़ार का पड़ेगा मैडम।’’
‘‘ये लहँगा सिर्फ़ दो हज़ार में!!’’ प्रसन्नता से चकित
स्त्री कहे बिना नहीं रह सकी। उसकी आँखों, चेहरे
और मुस्कुराहट से ख़ुशी झड़ने लगी; दुकानदार ने एक
सम्भावना पकड़ी,
‘‘बैठिए मैडम, सेम ऐसा पीस अभी निकलवाये देते हैं
आपके लिये। ओय बंटी, वो दाँये से पहली गड्डी
दिखा मैडम को।’’
‘‘पहले वो साड़ी देख लें जो लेने आये हैं!’’ पति की
आवाज़ में विवशता और डाँट दोनों थीं।
‘‘वो आप देख लीजिये।’’ पत्नी जैसे दूसरी ही हो गई
थी।
अब नौकर पत्नी को जरीदार लहँगा दिखा रहा था
और दुकानदार पति को साड़ी-दर-साड़ी,
‘‘ये एकदम सिम्पल, सोवर, शाइनी, साउथ लुक, ...मात्र
सात सौ रुपये।’’
‘‘ये चुनरिया प्रिन्ट, ...केवल साढ़े छह सौ में।’’
‘‘नहीं, हमें इससे भी कम रेन्ज की, ...बताया तो
आपको, गिफ़्ट में देनी है। घर के लिए लेनी होती तो
मँहगी ही लेते।’’ पुरुष दीनता से मुस्कुराते हुये बोला।
‘‘किस रेंज की साड़ी चाहिये आपको?’’ साडि़याँ
खोलता दुकानदार का हाथ रुक गया।
‘‘तीन-चार सौ तक की।’’ पति ने अपने पैर स्टूल के नीचे
कुछ और सिकोड़ते हुये कहा।
‘‘वो, बाहर की तरफ डेलीवियर साडि़यों की
गड्डियाँ रखी हैं, आप ख़ुद ही देख लें।’’ - दुकानदार ने
ताज़े आसमान के मार्निग स्टार्स से लेकर शाइनी
साउथ तक को समेटते-तहाते कहा।
अब दूसरा ग्राहक आ जाने पर वो नये सिरे
से सपनों-सी सुन्दर साडि़याँ दिखाने लगा था,
‘‘ये देखिये मैडम, एकदम नया टेªंड ! पूरे मार्केट में
आपको ऐसी साड़ी नहीं मिलेगी। काॅमन न हो
इसलिए सूरत से एक ही पीस...!’’
इधर पति ने पत्नी को -जो वशीभूत चेहरे से लहँगे का
इंच-इंच निहार रही थी- छुआ,
‘‘राशि, आओ ये साडि़याँ देखें।’’ उसकी उँगली दुकान
बाहर गड्डियों में रखी सादा, नर्म साडि़यों की
तरफ़ थी।
‘‘नहीं! पहले ये देखते हैं ना! कितना सुन्दर लहँगा है और
वो भी सिर्फ़ दो हज़ार में!! वो मेरी सहेली है ना
मीनू; उसने अपनी शादी में ठीक ऐसा ही लहँगा
पहना था। दस हज़ार का बता रही थी। तब नया-
नया चला था ये डिजाइन; अब डेढ़-दो साल बाद ये
इतना काॅमन हो गया है! सोचो तो! बस दो ही
हज़ार में मिल रहा है! ले लेते हैं ना! ’’ - पत्नी भरसक
नीची आवाज़ में कह रही थी; पर उसकी प्रसन्नता
किसी भी तरह दब नहीं पा रही थी।
‘‘बाद में ले जायेंगे। अभी जो गिफ़्ट के लिए लेने आये हैं
वो साड़ी देख लेते हैं।’’
‘‘लेकिन दो हज़ार तो हैं मेरे पास!’’
‘‘राशि प्लीज़...!’’ पति ने दुकानदार और नौकरों की
गढ़ी नज़रों में स्वयं को भरसक सहज दिखाते हुए कहा;
पर उसकी आवाज़ का मर्म पत्नी ने महसूस लिया और
उसने पल भर को पति के चेहरे की तरफ़ देखा। उस चेहरे
पर उसे अपना कुल वैवाहिक जीवन दिखा:
-दो साल की शादी से पहले की शर्म-सपनों-सुन्दरता
के दिन!
-शादी का ख़्वाब-ख़्वाब-सा सच!
-नई गृहस्थी का तिनका-तिनका संघर्ष!
पत्नी जैसे एकदम होश में आ गई ; ...पति की आम
आदमी वाली कमाई, ...किराये का फ़्लैट, ...अपने घर
का सपना, ...कुछ और समय तक बच्चा न करने का
विवश निर्णय, ...पाई-पाई: सिक्के-सिक्के की बचत!
अगले ही पल पत्नी के चेहरे से पिछले पल वाली ख़ुशी
तितली की तरह उड़ गई जबकि दुकान का नौकर पूछ
रहा था,
‘‘तो इसे पैक कर दूँ?’’
‘‘नहीं! अभी रुकिये! इसमें और कलर्स हैं क्या?’’ -
हार्दिक पसन्दगी ज़ाहिर कर चुकी नवयुवती स्त्री
को समझ नहीं आ रहा था कि अब एकदम से न कैसे
कहे।
नौकर लहँगे का दूसरा रंग लाने उठ गया
और इस बीच चुप चेहरों से पति-पत्नी बाँयी ओर की
सस्ती साडि़यों को छूने-परखने लगे।
‘‘ये ठीक है।’’ एक गुलाबी साड़ी पर दोनों ने एक साथ
कहा।
इधर नौकर ने लहँगे का दूसरा रंग फैलाया,
‘‘देखिए बहनजी, ये पीले-किरमिज़ी का
काम्बिनेशन। ये भी ख़ूब फबेगा आप पर।’’
नौकर ने खड़े होकर लहँगा ख़ुद से लगाकर
दिखाया।
स्त्री की आँखें झिलमिलाकर बुझ गईं।
‘‘नहीं रहने दीजिये। अभी ये वाली साड़ी ही पैक कर
दीजिये।’’
‘‘अरे! पर आपको तो इतना पसंद आया है लहँगा! ले
लीजिये, डिस्काउन्ट कर देंगे।’’
‘‘नही, फिर कभी ले जायेंगे। अभी तो बस ये साड़ी
ही...!’’
साड़ी का दाम चुकाकर दोनों दुकान से बाहर
निकले। नवयुवती पत्नी के चेहरे पर हल्की स्याह शाम
जैसी उदासी थी। पति ने उसके कंधे पर हाथ रखा,
‘‘तुम्हें वो लहँगा बहुत पसन्द था?’’
और पत्नी ने जैसे सुना ही नहीं; सड़क
पार कर चाटवाले ठेले की ओर चलते हुए उसके चेहरे पर
नया रंग आ गया - छोटी तितली जैसी ख़ुशी का रंग!
वो कह रही थी,
‘‘कितने दिनों से हमने चाट नहीं खाई ना!’’

No comments:

Post a Comment