अच्छा हुआ मुझे
शकील से प्यार
नहीं हुआ
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22 सितम्बर, 1992
आज कालेज से घर लौटने में जरा देर हो गई। कोई खास देर
नहीं। बस सात बजकर पाँच मिनिट ही तो
हुए थे। हुआ यह कि कालेज से सहेलियों के साथ फिल्म देखने
चली गई। फिल्म का आखिरी दिन था।
अचानक प्रोग्राम बन गया। घर प़र बता नहीं पाई।
मगर हाल से बाहर निकलते ही टेंशन शुरू। घर जाना
भारी हो गया। ऐसा लग रहा था कि अब घर जाऊं
ही नहीं। पर फिर, कहाँ जाऊं? और कोई
जगह भी तो नहीं। घर पर न जाने क्या
होगा? सोचकर ही दिल बैठा जा रहा था। मुझे
भी क्या पड़ी थी फिल्म देखने
की? उस समय तो कुछ सोचा ही
नहीं, अब भुगतो, भुगतना ही पड़ेगा। पर
ऐसा भी कौन-सा गुनाह हो गया? फिल्म ही
तो देखने गई थी, अपनी सहेलियों के साथ।
जैसे-तैसे हिम्मत जुटाकर घर पहुंची।
बाबूजी ने दरवाजा खोला तो राहत मिली। मुझे
देखकर बाबूजी की चिंता संतोष में बदल
गई। उन्होंने दरवाजे से ही अम्मा को बताया। मगर
अम्मा तो रसोई से ही जोर-जोर से बर्तन खड़ाखड़ाकर
मेरा गुस्सा बर्तनों पर उतारने लगीं। पर उनका मन इसमें
भी ज्यादा देर नहीं लगा। वे
दनदनाती हुई बैठक में आई और मुझसे
नहीं, बाबूजी से बोलीं - "पूछो
तो जरा इससे, कहां थी यह अब तक?"
बेचारे बाबूजी! उन्हें तो कुछ सूझा ही
नहीं। उन्होंने अखबार में मुंह छुपा लिया। मगर अम्मा
कोई ऐसे टलने वाली थोड़े ही
थीं। उनका स्वर और तेज हो गया - "कैसे बाप हो
जी तुम? पूछते क्यों नहीं?"
बाबूजी को जवाब देने की जरूरत
ही नहीं पड़ी। मैंने उन्हें
उबार लिया, अपना जवाब खुद देकर।
पर सिनेमा देखने की बात सुनकर तो अम्मा के तन-बदन
में आग लग गई, बोलीं - "हम तो यहां चिंता में घुले जा
रहे हैं और आप महारानीजी गई
थी सिनेमा देखने।" फिर रौद्र रूप में आकर पूछने
लगीं - "अच्छा सहेली थी कि
सहेले?"
अम्मा को तो मेरे झूठा और खुद को सच्चा होने का पूरा भरोसा था,
अब उनकी भी क्या कहें! उन्होंने किस्सों
की किताबों में पढ़ा, फिल्मों में देखा और लोगों से सुना था
कि कालेज में पढ़ने वाली लड़कियां ऐसे ही
घरवालों को बेवकूफ बनाकर मटरगश्ती किया
करती हैं।
अम्मा ने कड़ककर रीता के बारे में पूछा। मैंने बताया कि
वह तो आज कालेज गई नहीं तो अम्मा
बोली - "झूठ बोलती है, रीता तो
मुझे घर पर दिखी नहीं दिनभर।"
अब जरूरी तो नहीं कि रीता
कालेज नहीं जाए तो अम्मा को घर पर ही
दिखे। अम्मा की यह बात तीर से चुभ
गई, सहन नहीं हुई। दुःख और क्रोध में भरकर मैं
भी फुंफकारी - "अम्मा तुम तो पुलिसियों और
वकीलों की सी पूछताछ कर
रही हो। जब मुझ पर भरोसा नहीं है तो
पूछती क्यों हो? वही समझो ना, जो तुम्हें
समझना है।"
यह सुनकर तो अम्मा बिल्कुल आपे से बाहर ही हो
गईं। उन्होंने बाबूजी की तरफ देखा।
बाबूजी चुप थे। उनकी चुप्पी
ने आग में घी का काम किया। अम्मा चीख
पड़ीं - "गज भर की जबान हो गई है।
इसका तो झोंटा पकड़कर बाहर निकालो। कालेज जाने की
आजादी दे रखी है, इसका मतलब यह तो
नहीं कि रात के बारह बजे घर आए।"
बारह बजे की बात सुनकर तो मेरा भी दिमाग
खराब हो गया। ऐसा सफेद झूठ! सब बाबूजी को उकसाने
के लिए। मैं भी चिल्लाई - "बारह बजे बारह
बजी है अभी? फालतू में
जलील करती हो। बाबूजी, देखो
ना अम्मा को! बाबूजी, बोलो ना! बोलते क्यों
नहीं?"
बाप रे बाप! बाबूजी का मुंह क्या खुला, जैसे बारूद के ढेर
में चिंगारी लग गई। विस्फोट हुआ अम्मा के इन शब्दों
से, "हां-हां, तुम तो तरफदारी करो इस छिनाल
की! जाने कहां-कहां मुंह काला करती
फिरती है। अभी इसकी
तरफदारी करके बिगाड़ लो, पर जब नाक
कटेगी तो तुम्हारी ही।"
अम्मा की बात बहुत बड़ी थी।
कटार सी जाकर सीधी कलेजे
में उतर गई। कुछ कहा नहीं गया मुझसे, आंखों से
आंसू बह निकले। अपने कमरे में चली आई और
फूट-फूटकर रोने लगी। रोते-रोते हिचकियां बंध गईं पर
अम्मा को चैन नहीं था। रसोई से बर्तन पटकने
की आवाज के साथ अम्मा की बड़बड़ाहट
भी आ रही थी, "हुंह अब
सोंठ हुई जा रही है। हम नहीं कहेंगे तो
कौन कहेगा? कैसे पर निकल आए हैं! अभी
नहीं कतरे तो फुर्र हो जाएगी एक दिन!"
आखिर मैंने ऐसा कौन-सा गुनाह कर दिया? अपनी
सहेलियों के साथ ही तो गई थी।
यदि कभी...
मुझे शकील से प्यार हो जाता...तब तो मैं उसके साथ
फिल्म देखने भी जरूर जाती।
तब क्या होता...?
तब तो अम्मा जरूर मेरी पढ़ाई छुड़ाकर घर पर
ही बिठा लेती। फिर तो मैं
शकील को देख भी नहीं
पाती, कालेज में।
और बाबूजी...?
वो तो कुछ कहते ही नहीं। चाहे मैं रो-
रोकर जान भी दे देती, वे तो सदा
की तरह अखबार में मुंह दिए सच्चाई से मुंह चुराए
बैठे रहते।
तब तो अच्छा ही हुआ कि मुझे शकील से
प्यार नहीं हुआ।
20 अक्टूबर, 1992
आज फिर क्लास में शकील मुझे मुड़-मुड़कर देख रहा
था। उसे सर ने डांटा पर अगले पीरियड में फिर मुड़कर
देखने लगा। क्यों देखता है मुझे, वह इस तरह? पर मुझे
भी तो अच्छा लगता है, मुझे उसका इस तरह देखना।
क्यों अच्छा लगता है, मुझे उसका इस तरह देखना?
और तो और, जब वह मेरे सामने नहीं होता, मुझे
नहीं देख रहा होता, तब भी लगता है,
जैसे वह मुझे देख रहा है, मेरे सामने है।
और मैं भी दिन-रात उसी के बारे में क्यों
सोचती हूं?
क्या वह भी ऐसे ही दिन-रात मेरे बारे में
सोचता है?
क्या उसे याद है कि बचपन में हम लोग साथ खेलते-कूदते, धूम
मचाया करते थे? कभी-कभी वह हमारे
घर भी आता था।
और तब अम्मा, उफ। उसके जाने के बाद अम्मा पूरे घर में गोमूत्र
और गंगाजल के छींटे दिया करती
थीं और बाबूजी हंसते थे अम्मा पर। तब
अम्मा सदा की ही तरह
बड़बड़ाती थीं बाबूजी पर।
अब कभी शकील घर आ जाए तो?
ओहो तब तो अम्मा आसमान ही सिर पर उठा
लेंगी।
अम्मा भी बस गजब ही
करती हैं।
क्या शकील को पता होगा कि अम्मा उसके जाने के बाद
घर की शुद्धि किया करती थीं?
हां याद आया, एक बार मैंने ही तो बताया था
शकील को। और उसके बाद शकील हमारे
घर आने से डरता था। फिर कभी आया ही
नहीं।
शायद अभी भी डरता है। अब तो
मेरी बात भी नहीं
होती उससे। जाने क्यों बड़े होते-होते लड़के-
लड़की ऐसे दूर हो जाते हैं! अपने आप
ही।
शायद बड़ों ने ही ऐसा कर रखा है। पर वे
भी तो कभी छोटे थे। तब क्या उनका मन
नहीं होता था बातें करने का?
पर तब उनके बड़े भी ऐसा ही करते होंगे।
पर ऐसा क्यों करते हैं वे? शायद इसलिए कि लड़के-
लड़की प्यार न करने लगें एक दूसरे से। क्या पता?
तो क्या मैं शकील से दूर नहीं
होती तो उससे प्यार करने लगती?
अगर मुझे शकील से प्यार हो जाता तो?
अब भी हो जाए तो?
तब अम्मा का क्या हो?
शायद हार्ट फेल ही हो जाए। या फिर वे पागल
ही हो जाएं गुस्से से। और बाबूजी?
वे शायद कुछ न कहें।
नहीं-नहीं याद आया। दिल्ली
वाली गुड्डन बुआ ने परजात में शादी
की थी, घर से भागकर, तो
बाबूजी ने कैसा हंगामा मचाया था! अब इतने दिनों बात
भी जब वे छोटे चाचा के यहां शादी में
मिलीं तो कैसा खून उतर आया था बाबूजी
की आंखों में।
फिर शकील की तो जात क्या, धर्म
भी अलग है।
चलो, तब तो अच्छा ही हुआ कि मुझे
शकील से प्यार नहीं हुआ।
28 दिसम्बर, 1992
आजकल कालेज जाने की इच्छा ही
नहीं होती। अच्छा ही
नहीं लगता।
शकील भी तो नहीं आता। और
मेरी आँखें भी तो बार-बार उसी
सीट पर जाती हैं, जहां वह बैठा करता था।
आजकल वहां गिरीश बैठा करता है। पर
कहीं गिरीश कुछ गलत न समझ बैठे।
अब से ध्यान रखूँगी।
पर मुझे तो अब भी वहां शकील
ही बैठा दिखता है।
पर ये शकील आखिर गया कहां?
अम्मा कह रही थीं, सारा कुनबा रातों-रात
गायब हो गया। सब दूर ऐसा ही हुआ है। डर के मारे
सबने अपने-अपने घर खाली कर दिए और अपने
इलाकों में चले गए, जिससे एक होकर हिंदुओं का मुकाबला कर
सकें।
पर हिंदुओं को भी ऐसा करने की क्या
जरूरत थी?
आखिर मुसलमान लोग हमसे अलग तो नहीं है ना!
इतिहास की किताब में तो पढ़ा था, अपने देश में जो
भी मुसलमान हैं, उनमें से अधिकतर तो धर्म बदलकर
मुसलमान बने हैं। पहले तो सब हिंदू ही थे।
क्या पता शकील के पुरखे हिंदू ही हों।
फिर वे हमसे अलग कैसे हुए? वे भी
यहीं के तो हैं।
और जो बाहर से आकर यहां बस गए, वे भी तो
यहीं के ही हो गए हैं ना!
पर अम्मा कहती हैं - "हमने उन्हें नहीं
भगाया तो एक दिन वे हमें भगा देंगे।"
पर ये तो पीढि़यों से यहीं रह रहे हैं,
आखिर अब जांएगे तो कहाँ?
फिर जो मुसलमान बाहर से आकर यहां बसे उन्होंने भी
तो इसे अपना ही देश माना। अपना समझा,
तभी तो इतना सुंदर ताजमहल बनवाया,
कुतुबमीनार बनवाई। और भी
कितनी सारी सुंदर-सुंदर इमारतें मुझे तो इतने
सारे नाम भी याद नहीं। किताब में तो लिखा
है- कुतुबमीनार और ताजमहल दुनिया के अचम्भे हैं,
देश की शान हैं। इनके कारण तो हमारा सिर दुनिया भर में
ऊंचा है।
यदि वे इसे अपना देश नहीं समझते तो यह सब क्यों
बनवाते यहां? अपने देश में जाकर नहीं बनवा लेते
इतनी सुंदर चीजें?
क्यों इतिहास के पर्चे में प्रश्न आता कि "मुगलकाल को
भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग क्यों कहते हैं?" अरे
कुछ किया होगा तभी ना!
तो क्या हम बाबरी मस्जिद की तरह इन्हें
भी गिरा देंगे?
क्या मुसलमानों के साथ इन्हें भी बाहर फेंक देंगे?
क्या पता?
और जो अकबर ने इतना अच्छा धर्म बनाया, हमने उसे क्यों
नहीं उठाया, मस्जिद गिराने के बदले? आखिर हमने
क्यों गिराई मस्जिद? हमने दीन-ए-इलाही
को क्यों नहीं उठाया?
अम्मा से पूछा तो वे चुप हो गईं। बाबूजी से पूछा तो वे
बोले - "पगली है।" क्लास में मैडम से पूछने
की तो हिम्मत ही नहीं हुई।
कहीं सब हंसने लगे तो? और मैडम ने डांट दिया तो?
पर शकील अभी तक आया क्यों
नहीं?
अब तो सब दूर शांति हो गई है।
क्या ये लोग अब भी शकील को यहां से
भगा देंगे?
हे भगवान! तब वे लोग कहां जाएंगे?
कभी मुझे शकील से प्यार हो गया होता,
तब क्या होता? तब तो ये सब शकील के ज्यादा
ही दुश्मन हो जाते।
बेचारा शकील, तब क्या करता वह?
फिर तो अच्छा ही हुआ मुझे शकील से
प्यार नहीं हुआ।
12 जनवरी, 1993
आज मोहल्ले में जीप घूम रही
थी। सब लोग कपड़े डाल रहे थे उसमें, दंगा
पीडि़तों के लिए। अम्मा ने भी ढेर सारे कपड़े
डाले - मेरे, बाबूजी के और अपने भी।
आज तो जैसे अम्मा का दिल भी बड़ा हो गया था। मेरा
पीला वाला सलवार सूट भी दे दिया। मुझे बड़ा
पसंद था। अभी तक भी नया दिखता था।
अम्मा भी कहती थीं - "ये रंग
तो, सुम्मी, तुझ पर खूब फबता है।"
शायद शकील लोग भी दंगा
पीडि़त में हों।
अगर हमारे कपड़े शकील लोगों को मिले तो?
शकील तो पहचान जाएगा।
पर अब अम्मा ने एक बार भी नहीं पूछा
कि ये कपड़े हिंदुओं को मिलेंगे कि मुसलमानों को?
अम्मा क्या, पूरे मोहल्ले में किसी ने भी
नहीं पूछा।
ये कपड़े तो दंगा पीडि़तों को मिलेंगे।
बाबूजी कहते हैं - "हिंदू-मुसलमान दोनों ही
दंगा पीडि़त हैं।"
जब हमारे दिल में इतनी दया-माया है, दंगा
पीडि़तों से इतना प्रेम है तो हम सब दंगा करते
ही क्यों हैं?
बाबूजी कहते हैं - "सब वोटों की
राजनीति है।"
यह वोटों की राजनीति क्या
होती है?
पर बाबूजी से कौन पूछे?
पर ऐसी भी क्या राजनीति वोटों
की?
23 जनवरी, 1993
आज सरला जीजी आईं थीं।
कितनी सुंदर लग रही थीं। गोरे
चेहरे पर बड़ी लाल बिंदी, मांग में ढेर सारा
सिंदूर और जेवरों से लदी सरला
जीजी का चेहरा कैसा दमक रहा था! पहले
ही कम सुंदर नहीं थीं,
शादी के बाद तो रूप और निखर आया है।
और जीजाजी?
रंग जैसे औंधा तवा, ऊपर से चेचक के दाग। देह ऐसी
जैसे खेत में खड़ा बिजूका खेत से बाहर आ गया हो।
ताऊजी ने भी इतनी सुंदर
सरला जीजी का ब्याह जैसे काले काग से
कर दिया।
पहले तो सरला जीजी की जरा
भी इच्छा नहीं थी उनसे
शादी करने की। षादी के पहले
कैसी गंगा-जमुना बहाया करती
थीं!
पर यह बात जरूर है कि मुंह से उफ तक नहीं
की सरला जीजी ने। पर
ताऊजी को तो मालूम था। बड़ी बुआ मुंहफट
हैं। ताऊजी उनसे जरा दबते भी हैं।
उन्होंने तो कहा भी था- "बंदर के गले में
मोती की माला पहना रहे हो, भैया।"
पर ताऊजी ने तो बुआ की बात जैसे सुनकर
भी नहीं सुनी। सरला
जीजी की आंखों से
बहती गंगा-जमुना देखकर भी
नहीं देखी और भांवरें डाल ही
दीं। बाबा रे! सरला जीजी
की आंखें कैसी सूज गई थीं
रोते-रोते! पर बेचारी गऊ सी बंध गईं, जहां
ताऊजी नें बांध दिया।
पर अब तो देखो, शादी को महीना
ही बीता है बस। कैसी चहक
रही हैं। अम्मा ने रूकने का कहा तो बोली -
"नहीं-नहीं, ये परेषान हो जाएंगे। मेरे बिना
रह ही नहीं पाते।"
रधिया की भाभी ने छेड़ा -
"जीजी, यूं क्यों नहीं
कहती कि तुम ही नहीं रह
पाती हो उनके बिना।"
सरला जीजी तो छुई-मुई हो गईं।
भाभी ने चिमटी काटी तो
शरमाकर रह गई।
लगता ही नहीं कि ये वे ही
सरला जीजी हैं, जो शादी के
पहले बहुत रोई थीं। मतलब, अब वे उन्हें
जीजाजी को इतना प्यार करने
लगीं।
ऐसा क्यों होता है? जिससे शादी होती है,
उससे प्यार भी हो जाता है?
यदि शकील से मेरी शादी कर
दी जाती तब तो मुझे भी उससे
प्यार हो जाता ना!
पर शकील से मेरी शादी करता
ही कौन?
तब भला मुझे क्यों होता उससे प्यार?
30 जनवरी, 1993
नया साल शुरू हो गया, पर शकील अभी
भी नहीं आया।
कालेज से घर लौटी तो अम्मा रधिया भाभी से
बातें कर रही थीं। वही बातें,
कालेज में भी वही बातें, घर में
भी वही। सबके मुंह पर
यही बात।
अम्मा कह रही थीं - "रीता
लड़की ही बड़ी
चलती-पुर्जी थी। आखिर गई
क्यों थी अपने यार के साथ! ऐसी लड़कियों
के साथ तो ऐसा होता ही है। क्या गलत हुआ? उसे
जाना ही नहीं था। अब भुगतो रंगरेलियां
मनाने की सजा।"
पर क्या किसी दोस्त के साथ बैठने, घूमने-फिरने का
मतलब है कि जमाने से दोस्ती हो गई? एक लड़के से
दोस्ती की तो क्या कोई
जबर्दस्ती इज्जत लूट लेगा?
कालेज में भी सब ऐसी ही
बातें कर रहे थे, बेचारी के लिए। सब उसी
की गलती बता रहे थे। पहले
गीता के साथ ऐसा हुआ था, तब भी सबने
उसी पर लांछन लगाए थे। वह तो बेचारी
आटा पिसाने गई थी, तब सबने उसके मां-बाप
की ही गलती बताई
थी कि उसको अकेली क्यों भेजा।
और उन जानवरों ने तो बेचारी को पुलिस के सामने
भी छिनाल कहा। पुलिस ने भी
उन्हीं की बात मानी और सब
लोगों ने भी।
पर यदि वह छिनाल ही होती तो
उसकी इज्जत किसी को
जबर्दस्ती लूटने की जरूरत
ही क्यों पड़ती? वह तो खुशी-
खुशी तैयार हो जाती।
और यदि वह ऐसी थी भी, तो
भी उसके साथ जबर्दस्ती करना
किसी भी आदमी का अधिकार
कैसे हो गया?
पर दुनिया क्यों सोचने लगी यह सब?
खैर जो भी हो अम्मा ठीक ही
कहती हैं, अकेले-दुकेले नहीं जाना
चाहिए। दिन रहते घर आ जाना चहिए।
पर इससे इतना डरना क्यों?
इसमें तो सचमुच ही लड़की
की कोई गलती है ही
नहीं।
पर फिर भी सब उसी को क्यों गलत मानते
हैं?
उसी पर क्यों रोक-टोक लगाते हैं?
अब रास्ते चलते गिर गए, चोट आ गई, बात खत्म। कोई यह तो
नहीं कहता कि चलो मत। सब चलते हैं। इस बात को
भी ऐसी ही क्यों
नहीं मान लेते हैं? दुनिया की सोच
भी बड़ी अजीब है।
तब तो ठीक है। अकेले-दुकेले जाने में कोई बुराई
नहीं है। दिन रहते घर आना भी
जरूरी नहीं है।
हां, यह ठीक है। दुनिया की सोच
ही गलत है। तब तो दुनिया बदले अपनी
सोच।
पर रहना तो यहीं है। दुनिया में रहना है तो दुनिया के
हिसाब से ही चलना पड़ेगा।
पर फिर यह सब बदलेगा कौन?
कोई भी बदले।
पर मेरी भी तो कोई जिम्मेदारी
है।
पर दूसरे भी तो ऐसा समझें। मैं ही क्यों?
पर यदि कभी..
मुझे शकील से प्यार हो जाता तो मैं भी
उसके साथ ऐसे ही जाती और तब ऐसे
ही गुंडे आ जाते और कभी
यही सब मेरे साथ होता तो?
क्या अम्मा मेरे लिए भी ऐसे ही
कहतीं?
हां, शायद.
और मुझे घर में भी नहीं
रखतीं, निकाल ही देतीं घर से।
और बाबूजी?
वो शायद अम्मा को रोक लेते।
पर अम्मा रूक जातीं क्या? वे तो मेरा गला घोंटकर
ही दम लेतीं।
और लोग भी तो मेरे बारे में ऐसी
ही बातें करते।
तब तो अच्छा ही हुआ मुझे शकील से
प्यार नहीं हुआ।
शकील से ही क्या, अच्छा हुआ कि मुझे
किसी से भी प्यार नहीं हुआ।
12 फरवरी, 1993
आजकल कुलविंदर रोज रानी को लेने कालेज में आ जाता
है। दोनों वहां से कहीं घूमने जाते हैं। रानी
के घर पर किसी को भी नहीं
मालूम है।
उसने दूसरी सब सहेलियों से तो कह रखा है कि
कुलविंदर उसका भाई है, लेकिन असली बात उसने बस
मुझे ही बताई है।
रानी और कुलविंदर दोनों एक-दूसरे को प्यार करते हैं।
कुलविंदर तो रानी की ही जात-
धर्म का है। दोनों की शादी भी
हो सकती है। रानी कह रही
थी - बाजार में बिजली की
दुकान है कुलविंदर की।
पर फिर रानी ने सबसे झूठ क्यों बोला कि कुलविंदर उसका
भाई है।
क्या रानी को सच बोलने से डर लगता है?
रानी सबसे कह क्यों नहीं
देती कि वह कुलविंदर से प्यार करती है?
यदि मुझे शकील से प्यार हो जाता तो क्या मैं
भी उसे ऐसे ही भाई कहती?
नहीं-नहीं, नहीं कह
पाती।
तो क्या मैं सबसे कह पाती कि शकील मेरा
कौन है?
पर कह देती तो अम्मा मुझे जिंदा ही गाड़
देती।
तब तो मुझे भी रानी की तरह
झूठ ही बोलना पड़ता।
पर क्या मैं बोल पाती?
पर क्या सच बोलकर मैं शकील से प्यार कर
पाती?
तब तो अच्छा हुआ कि मुझे शकील से प्यार
नहीं हुआ।
Friday 2 October 2015
The Story- अच्छा हुआ मुझे शकील से प्यार नहीं हुआ
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