Friday 2 October 2015

The story- हरियाली बचपन

हरियाली
बचपन
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बचपन की यादें जब-जब याद आतीं हैं
बहुत अच्छा लगता है | अजीब सी
अनुभूति होती है ! आज जब मैंने उस बचपन को देखा
तो सहज ही मुझे स्मरण हो आया-
हरियाली बचपन ! हारी घास का गट्ठर लादे
सुबह-सुबह...बचपन हरियाली, हरियाली
और बचपन ! अक्सर ऐसा होता रहता | मैं उस रास्ते से सुबह
टहलने या मैदान के बहाने घूमने जाया करता था |
कभी ऐसा न हुआ कि वह मुझे न दिखी हो
| उम्र लगभग 14-15 साल, सांवला रंग | घास का गट्ठर लादे पता
नहीं क्या सोचती- चली
जाती | मेरे भावों का पारावार न था | भारत उदय और
हरियाली बचपन- उफ़ ! यह विरोधाभास, शायद बाधक है
प्रगति का, अभिशाप है हमारे समाज का |
लगभग 2-3 महीने यही क्रम चलता रहा
| अंततः मेरा मन नहीं माना तो पता करने की
ठानी | मैंने पूछा तो उसने हलके संकोच से बताया,
‘यहीं पास में रहतीं हूँ | दो बहने और
एक छोटा भाई है, वे भी मेरी तरह....| माँ-
बाप मजदूरी करते तब जाकर भोजन |’
‘स्कूल !’ मैंने पूछ ही लिया,
यह यक्ष प्रश्न था | वह मौन रही, मानो कहना
चाहती हो यह भी कैसा मूर्ख प्रश्न |
पेट की आग बनाम शिक्षा ! मैं समझ गया | बहुत
कठिन है राह जीवन की | आश्चर्य
अभी से सब समझती है | मैं आगे कुछ
पूछ न सका | लौट आया बुझे मन से | हरियाली में छिपा
बचपन सिसकता है | क्या करे वह, मजबूर है स्वयं से/भाग्य
से !
एक दिन मैंने फिर पूछा- ‘पढने की इच्छा
नहीं होती ?’
‘होती है तो भी क्या किया जाए, कल्पना में
जी लेती हूँ यथार्थ को ढोती
हूँ |’
इस बार बड़ी निर्भीकता से जवाब दिया था
उसने |
‘हाँ यह भी सही है’, मैं ठंडी
सांस लेकर बोला |
हालांकि वह अकेली नहीं थी |
कई बच्चे रहते थे वहां पर मगर हमेशा नियत समय पर
हरियाली लादे वही दिखती मुझे
| निर्लिप्त भाव से उसके वजूद को समेटे हुए सबसे पहले
दिखती वह हरीतिमा, वह
हरियाली जिसके नीचे उसका सिर दब रहा
होता |
मैले-कुचैले कपड़ों में भी उसका लावण्य मेहनत के
पसीने की बूंदों से दमक उठता | वह
अपनी उम्र के हिसाब से बहुत कठिन श्रम
करती थी जबकि मुझे हर मौसम
की सुबह ठण्ड भरी लगती
थी | यह नित्य की बात होती
| मैं विवश था, बढ़ जाता आगे उसके बारे में/ भविष्य के बारे में
सोचते हुए |
आगे एक मैदान पड़ता था जहाँ पर इलाके के लड़के दिन भर क्रिकेट
खेला करते थे उसके आगे छोटे-छोटे मिट्टी के
टीले पड़ते थे | सुबह-सुबह वहीं दिखते
मुझे कुछ बच्चे गोलियां, गिल्ली-डंडा खेलते हुए | उनमें
से कुछ तो बहुत ही छोटे थे मगर जब उनके मुंह से
देसी गालियों की बौछार निकलती
तो आश्चर्य होता मुझे | क्या गर्भ में ही सबकुछ
सीख गये | चाहे उनका अर्थ भी न जान
पाते हों मगर....|
कैसी ऊर्जा ! यह ऊर्जा का अपव्यय ही
तो है, अगर यही ऊर्जा कहीं और खर्च
हो | इस बात पर मुझे अपने बचपन की एक बात याद
आ गयी कि कैसे हम सब बातों-बातों में ही
टी-ली-ली-टी-
ली-ली कह एक दूसरे को चिढ़ाते थे | पल
में आपस में नाराज़ हो जाते और अलग-अलग गुट बना लेते और
आपस में गुस्से से कहते- ‘अट्टी-बट्टी
सात जलम की कुट्टी !’
दुनियादारी से अनभिज्ञ बचपन की
तोतली बातें जब हाथ के अंगूठे को दाढ़ी से
छुआकर सभी क्रम से यह कहते जाते | लेकिन
कभी भी हम और हमारे दोस्तों के
बीच होने वाला आपस का झगड़ा स्थायी न
रहा | पल भर में ही सब शांत हो जाते और एक दूसरे
के गले लग जाते जैसे कोई बात ही न हुई हो | क्या
मज़े के दिन थे ! कोई चिंता नहीं, और आज हमारे
बचपन इस स्थिति में- उफ़ ! कैसा परिवर्तन !! यह वातावरण का
प्रभाव था | पारिवारिक पृष्ठभूमि व परिस्थितियों का असर | इन्हें
अनदेखाकर हम कैसे कल्पना करें एक विकसित राष्ट्र
की, सम्पूर्ण शिक्षित समाज की ?
मैं उलटे पाँव लौट पड़ा | सहसा बांसों के झुरमुट के नीचे
मैंने उसी लड़की को खड़े देखा | वह कुछ
परेशान सी लग रही थी | मैंने
उससे पूछा, ‘क्या बात है ?’
‘कुछ नहीं’
‘अरे बताओ तो’
‘वो....वो मारता है, परेशान करता है’
‘अरे कौन?’, मैं झुंझला गया |
वह सहमी थी, बोली-
‘वही जिसके घर के सामने हम रहते हैं |’
मुझे सहानुभूति हो आयी | उसकी तरफ से
मैं तिवारी जी के घर पहुंचा जिनके घर के
ठीक सामने एक झोपड़ी टाइप मकान में
उसका परिवार रहा करता था | तिवारी जी से
मेरा हल्का-फुल्का परिचय था सो किसी तरह मामला
सुलझाने का प्रयास किया | वैसे कोई ख़ास बात भी
नहीं थी | तिवारी
जी की पत्नी साहिबा
गंदगी से परेशान थीं | वह चिल्लाकर
मुझसे कहने लगीं- ‘इनके चक्कर में मेरे बच्चे
भी बरबाद हो गये | बड़े म्लेच्छ हैं ! उफ़ ! कहाँ
फंस गयी मैं |’ आदि-आदि |
मैंने उनके बजाय तिवारी जी को समझाना
ज्यादा उचित समझा |
‘कहाँ आप भी, अरे कोई स्थायी निवास तो
बना नहीं रहे | अगर हम भी
इनकी तरह लड़ने-झगड़ने लगे तो हममे और इनमें
क्या फर्क रहा |' मेरा इतना कहना था कि तिवारी
जी मेरे ऊपर ही भड़ास निकालने लगे |
मुझे उनसे ऐसी आशा न थी | अपने मन
का सारा गुबार मुझ पर निकाल तिवारी जी शांत
हो गये | मैं चुपचाप सुनता रहा | चुप रहा, केवल
उसकी खातिर | एक असहाय परिवार कि रक्षा में मुझे
गुरुता महसूस हो रही थी | जाते-जाते मैंने
तिवारी से ठन्डे दिमाग से सोचने के लिये कह दिया था |
इसी तरह एक दिन मैं अपने मित्र डॉ.
श्रीवास्तव के क्लिनिक पर बैठा था कि तभी
वह आई | वह अपनी गोद में 2-3 साल का एक
लड़का लिये हुई थी जो कि शायद उसका छोटा भाई था |
उसने बताया कि उसके भाई को बहुत तेज बुखार है | डॉ. साहब बातें
छोड़ पहले उसे देखने लगे | बच्चे का शरीर बुखार से
तप रहा था डॉक्टर साहब ने अपने पास से कुछ दवाइयां
दी तथा कुछ दवाइयां बाहर से लिख दीं |
उन्होंने उसे एक इंजेक्शन भी लगाया | बच्चा दर्द से
कराह उठा | मैं सहानुभूति और शांत भाव से सब देखता रहा, विचार
पुनः उमड़ने-घुमड़ने लगे | डॉ. श्रीवास्तव ने उसे
दवाइयों की पर्ची थमायी | वह
मेरी तरफ देखने लगी, किसी
आशा भरी दृष्टि से | मैं समझ गया, फिर
भी औपचारिकतावश पूछा- 'क्या पैसे नहीं
हैं ?'
उसने न में सिर हिलाया | मैंने फिर पूछा, 'कुछ खाया है तुमने ?'
उसका सिर फिर हिला | उसके चेहरे पर मुर्दगी छाई
थी | मैं हिल गया | डॉ. साहब भी द्रवित
हो गये | मैंने सौ का नोट निकाल उसे दे दिया | वह कृतज्ञता
भरी कातर दृष्टि से मुझे टुकुर-टुकुर ताकती
रही | डॉ. श्रीवास्तव ने भी
उससे फीस न ली | उसके चले जाने पर
मैंने उन्हें पूरी बात बताई |
इस तरह की अनेकों घटनाएं मेरे साथ अक्सर हुआ
करतीं |
यह सब होते हुए जब मैं भविष्य के भारत की
कल्पना करता तो सिहर उठता | क्रूर मज़ाक ही तो है
यह, एक छलावा नकारात्मक के प्रति सकारात्मक
का...दीन-दुनिया से बेखबर मैं कुछ ज्यादा
ही सोच डालता | शायद अपनी
अंतर्मुखी प्रवृत्ति के कारण ही | फिर मैं
इन सब बातों की चर्चा करता भी तो किससे,
क्या फायदा मिलता ? कोरी गप्प समझते सब, हँसते
मुझ पर और मेरी बातों पर कि बड़ा आया समाजसुधारक
बनने | इसके आगे कुछ होता तो भी सोचता | सामाजिक
विषमता कि यही कड़ी भारत के विकास और
अखंडता के लिये घातक है | यहाँ व्यक्ति अपने सुख को सुख तो
समझता है परन्तु दूसरे के दुःख को दुःख नहीं | हम
मनुष्यों का दिशाबोध ही गलत है ऐसे जाने कैसे-कैसे
विचार मेरे मन-मस्तिष्क को झकझोर रहे थे, जैसे किसी
को इनकी परवाह ही नहीं !
एक दिन मैंने उससे पुनः बात की, कोशिश
की उसके अंतर्मन में झाँकने की लेकिन
आज वह कुछ न बोली | हरियाली के
नीचे छिपी दिखी मुझे
उसकी मुरझाई काया, कहीं
तबियत.....कड़ी मेहनत, कुपोषण....सबकुछ संभव
है..या कोई और बात | मैं ठहर गया | कहीं ऐसा न हो
कि बचपन हरियाली के नीचे सदा के लिये
दब जाए | वह धीरे-धीरे चली
गयी | मुझे उस दिन बड़ा कष्ट हुआ | मैंने दृढ़
निश्चय कर लिया कि मुझे कुछ करना है इन सबकी
दशा सुधारने के लिये | चाहे जो भी हो जाए, मैं करूंगा
प्रयास दूंगा एक नयी दिशा | इनके बचपन में
भी बचपन की खुशियाँ होगीं |
वास्तविक ख़ुशी, सच्ची
ख़ुशी !
इसके बाद कुछ दिनों तक वह मुझे नज़र न आयी | मैं
बेचैन हो गया | आखिर क्या हुआ उसे ? पता लगा कि वे लोग
मजदूरी करने कहीं बाहर चले गये |
मेरी आँखों के सामने उसका वही चित्र आ
गया | उसी मेहनती छोटी
लड़की का जो चुपचाप अपने काम में मग्न
रहती | सोचती कुछ-करती
कुछ थमती घास, बढ़ती उम्र | अब वह
न जाने कहाँ और कैसी हो | क्या होगा उसका
भविष्य ? ईश्वर सब ठीक करे !
आज जब भी उस रास्ते से निकलता हूँ तो सहज
ही उसकी याद आ जाती है |
मैंने उसका नाम तो आज तक नहीं पूछा मगर.....न
जाने कैसा लगाव था यह !
मुझे महसूस होता- असहाय, उत्पीड़ित बचपन में
जीना कितना दुष्कर है | निकटता से सब देखा था मैंने |
वह अभावों में पली थी |
कभी-कभी दिखती मुझे
उसकी धुंधली आकृति, धुंधला आभास मानो
छिपाए हो अपने आंचल में कोई रहस्य और फिर वह अचानक
हरियाली बचपन के साए में कहीं खो
जाती | मैं ढूंढता रहता उसको इधर-उधर, निरुद्देश्य
सोचता रहता हरियाली बचपन के बारे में | निरंतर ऐसे
प्रश्नों की बौछार मेरे मानस अभिमन्यु को प्रताड़ित
करती रहती | इतने विशाल महाभारत का
अंतिम परिणाम क्या रहा ?

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