Tuesday 27 October 2015

The story- बस वाली लड़की

बस वाली लड़की
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‘‘कोई बाहर तो नहीं रह गया?’’ कंडक्टर ने गरदन
घुमाते हुए सवारियों से पूछा। सब चुप रहे। हाथ के
पंखे की तरह कंडक्टर का सिर इधर-उधर डोला।
होंठ बुदबुदाता हुआ वह सवारियां गिनने लगा।
अपने कानों को छूकर उसने हाथ जोड़े। आंख मूंदते
हुए बोला-‘‘चलो उस्ताद।’’
ड्राइवर जैसे आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा
हो। बस सरकने लगी। दमकता चेहरा लिए हुए मेरी
बाईं ओर एक लड़की बैठी हुई थी। लड़की जींस और
खुले गले की मर्दाना शर्ट पहने हुए थी। उसकी देह
की महक कपड़ों पर छिड़के मंहगे इत्र के कारण दब
गई थी। इत्र की खुशबू से मेरा ध्यान बरबस उसी
की ओर जा रहा था। उसने बाएं हाथ से खिड़की
का शीशा सरकाया और बाहर देखने लगी।
मैंने गौर से उसे देखा। मगर बेहद फुर्ती से उस पर
नजर दौड़ाई। लड़की का गौरा रंग, कमर तक बिखरे
हुए लंबे काले बाल। जिन्हें वे हथेलियों से
संभालती। सिर से लेकर गरदन तक बार-बार सहेजती
ओर छोड़ देती। बाहर की हवा लड़की के चेहरे को
छूती हुई बालों को बिखेर रही थी। उसके बालों
से चुनिंदा बाल छितरा कर मेरे बाएं गाल और
कभी नाक के आस-पास तक आ जाते। मैं उन्हें
किसी बाधा के रूप में नहीं ले रहा था। एक
अनजानी सी विशेष खुशबू उसके बालों से आ रही
थी। जो मुझे फिर हवा के तेज झोंकों के आने का
इंतजार करा रही थी।
उसका बदन सुडौल था। देह का मांस जांघों से
जींस में उभार ले रहा था। बस बलखाती हुई, झटके
लेती हुई, कभी-कभार उछल रही थी। मगर लड़की
व्यवस्थित थी। उसे बस में सफर करने का अभ्यास
था। वहीं मैं कभी बाएं तो कभी दांए छितरा
रहा था। दस मिनट के सफर में ही मेरा बांया
कांधा उसके दाए कांधे से पांच-सात बार तो
टकरा ही गया था। मगर उसे मेरा टकराना सहज
और सरल लगा। शायद उसने इसे बस के सफर का एक
भाग मान लिया था।
जैसे ही मेरी देह का कोई अंश उसकी देह से छूता
तो मुझे लगता कि बस वक्त यहीं रुक जाता तो
कितना अच्छा होता। मगर वहीं दूसरी ओर यह
भी विचार मन में आता कि लड़की इस अनजाने से
व्यवहार को अन्यथा न ले ले। लड़की ने अपनी भौंहें
करीने से व्यवस्थित की हुई थीं। आंखों में काजल
लगा हुआ था, जो उसके चेहरे की कांति बढ़ा रहा
था। कानों में स्टाइलिश झुमके, जिनकी लटकन
मेरा जरूरत से ज्यादा ध्यान बंटा रही थी। लड़की
के पतलेे होंठों पर उसी की त्वचा से मेल खाती
लिपिस्टिक चस्पा थी, जिसकी महक इत्र से आने
वाली महक से अलग थी।
मैं जैसे ही उसके बालों से आने वाली महक और
कभी उसके कपड़ों में छिड़के हुए इत्र की महक की
तुलना करता तो उसके होंठों की लिपिस्टिक
की महक मेरा ध्यान बंटाती। फिर मैं सोचता कि
ये मेरी मूर्खता है। भला लिपिस्टिक में भी कोई
खुशबू होती है। हाथों के नाखूनों में ब्राण्डेड सूर्ख
लाल नेल पाॅलिश, बाईं नाक में सानिया मिर्जा-
सी नथ और पैरों में मर्दाना मगर गुलाबी जूते। कुल
मिलाकर मैंने आज तक किसी लड़की को इतना
गौर से पहले नहीं देखा था।
अतुल ने पत्र में लिखा था-‘‘देहरादून से चार बजे
एक ही बस चलती है। पैंतीस-चालीस की स्पीड से।
पहाड़ी और घुमावदार सड़कें। कुराड़ आएगा तो
मंसूरी भूल जाएगा। लड़की देखने जाना है। तू रहेगा
तो हौसला बना रहेगा। यहां नेटवर्क नहीं है।
एस.टी.डी.-पी.सी.ओ. भी नहीं हैं। एक सप्ताह के
लिए आना है। मैं बीस के बाद से तेरा इंतजार
करुंगा।’’
दो-तीन तक तो सोचता ही रह गया। फिर
सोचा-‘‘अतुल को जब तक मेरा पत्र मिलेगा, उससे
पहले तो मैं मिल-मिलाकर वापिस भी लौट
आऊंगा। आऊटिंग ही सही।’’
आज इक्कीस तारीख है। यही वजह थी कि मैं
आज सुबह तीन बजे उठ गया। पैकिंग रात को ही
कर ली थी। लंबे सफर की कल्पना से मेरा जी
मिचला रहा था। मगर जाना तो था ही। बस
अड्डा समय से पहले ही पंहुच गया। कंडक्टर के पीछे
वाली सीट पर एक लड़की बैठी थी। बगल की सीट
खाली थी। मैं उसी में बैठ गया। वो लड़की एक
सेंटीमीटर भी नहीं खिसकी। उसने मेरी ओर देखा।
मुझे सिर से पांव तक घूरा। मैं सकपका गया था।
उसके बाद वो खिड़की से बाहर देखने लगी थी।
बाहर अभी अंधेरा ही पसरा हुआ था। मैंने
सोचा-‘‘चलो। सफर अच्छा रहेगा। लड़की से बातों
ही बातों में समय का पता ही नहीं चलेगा।’’
बस ने शहर के मुख्य मार्ग को अलविदा कह
दिया था। तेज पीली रोशनी वाली स्ट्रीट
लाइटें अब पीछे छूट चुकी थीं। रात खुलने और जगने
के बीच का समय था। बस की गति के साथ पीछे
छूटते पेड़ भिन्न-भिन्न मद्धिम आकृतियां बनाकर
भ्रम पैदा कर रहे थे। मैंने सोचा-‘‘अब बात करता हूं।
पूछता हूं कि कहां जा रही हो?’’ तभी कंडक्टर ने
बस के भीतर की लाइट बुझा दी। लड़की को न
संकोच हुआ और न ही वह सिकुड़ी। भोर होने में
अभी वक्त था। एक-दूसरे के चेहरे अभी नहीं दिखाई
दे रहे थे। बस ने गति पकड़ ली थी।
लगभग एक घंटे का सफर बीत चुका था। अब पेड़,
पहाड़, आसमान और बादल दिखाई देने लगे। लड़की
सीट के पिछले हिस्से पर अपना सिर टिकाए हुए
थी। उसकी आंखें बंद थी। मैंने अपलक उसे निहारा
तो उसने आंखें खोल ली। हम दोनों की आंखंे चार
हुईं। मैंने अपनी आंखें झुका ली। कुछ समय यूं ही
बीत गया।
तभी एक बुजुर्ग ने गुहार लगाई-‘‘ड्राइवर साब।
चाय तो पिलवा दो। बस अड्डे की चाय तो थकी
हुई थी। अब तो सुबह भी खुल गई है।’’ कोई कुछ
नहीं बोला। कुछ ही देर बाद बस चाय के एक ढाबे
के पास खड़ी थी। मैंने सोचा-‘‘ये समय अच्छा है।
बातचीत शुरू करने का। इसे चाय के लिए कहता हूं।’’
मैंने लड़की की ओर देखा तो वह खिड़की से चाय
के ढाबे को गौर से देख रही थी। लड़की ने ढाबे
वाले को बांये हाथ की तर्जनी से एक चाय का
इशारा कर दिया। ढाबे वाले ने सिर हिलाया और
बनी बनाई चाय का गिलास नौकर को पकड़ा
दिया। मैं बस से उतरकर चाय पीने चला गया।
लगभग बारह मिनट के अंतराल पर बस रवाना हो
गई। यात्री चाय-पानी पीकर और लघु शंका का
निवारण कर तरोताजा महसूस कर रहे थे। एक मैं था
कि खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। मैंने
चने का एक पैकेट खरीद लिया था। सोचा-‘‘चलो
चना शेयर करने के बहाने ही सही इससे बात शुरू
करता हूं।’’ मैंने लड़की की ओर देखा तो वह चिप्स
का बड़ा पैकेट खोल चुकी थी। उसके दूसरे हाथ में
मल्टीनेशनल कंपनी का कोल्ड ड्रिंक्स था। मैं
समझ गया कि उसका चिप्स मेरे चने पर भारी पड़
चुका है।
सुबह की बेला की धूप सुहानी लगी। मैं चना
खा चुका था। मगर वह लड़की चिप्स और ड्रिंक्स
का ऐसा समन्वय बिठा रही थी कि पियक्कड़ों
की पंगत भी शरमा जाए। मैंने देखा कि वह एक
चैथाई ड्रिंक्स ही सिप कर पाई थी। इस गति से
उसने एक घंटा चिप्स और ड्रिंक्स में खपा दिया।
बस से बाहर का नजारा देखते ही बन रहा था।
चीड़, देवदार, बुरांश के वृक्षों से लदा वन सड़क के
दोनों ओर नजर आने लगा था। सड़क लगातार
ऊंचाई की ओर बढ़ रही थी। बस मोड़ों पर हांफने
लग जाती। यकायक उसकी गति धीमी हो
जाती। मोड़ के बाद फिर बस घूं-घूं कर आगे बढ़ने लग
जाती। अचानक बस रूकी तो किसी ने
पूछा-‘‘क्या हुआ?’’
कंडक्टर ने तपाक से जवाब दिया-‘‘कुछ नहीं।
इंजन गरम हो गया है। जरा इसके थोपड़े पर भी
पानी छिड़के देते हैं। जिसे हलका होना हो, हो
जाओ। अब बस खाना खाने के लिए ही रुकेगी।’’
मैंने सोचा-‘‘अब इस लड़की से पूछता हूं कि आप
उतरंेगी?’’ तभी मेरे दांयी ओर बैठी एक बच्ची ने मेरे
दांयी कोहनी पर उल्टी कर दी। इससे पहले की वो
दूसरा भभका मेरे ऊपर उड़ेलती। मैं पानी के धारे
की ओर दौड़ा। मैंने तबियत से अपनी कमीज की
दांयी आस्तीन धो डाली। पानी के धारे से मुड़ा
तो उसी लड़की से जा टकराया। वह मेरी
हड़बड़ाहट को भांपते हुए हौले से मुस्करा दी। मेरा
तो हलक जैसे सूख गया था। उसने धारे से पानी
पिया और मुझसे पहले अपनी सीट पर जाकर बैठ गई।
लड़की न होती तो मैं उस बालिका के थप्पड़
तो रसीद देता। नहीं तो ऊंघ रही उसकी मां को
चार बातें जरूर सुनाता। मगर चुप रहा। सड़क के
किनारे बांयी ओर इठलाती और बलखाती हुई
नदी बहती हुई दिखाई दी। न जाने वो कब से
हमारे साथ थी। मगर मेरा ध्यान तो लड़की की
ओर ही था। बालिका की कै के बाद से ही मैं अब
अपना ध्यान इधर-ऊधर बंटाना चाह रहा था। नदी
का जल इतना साफ था कि डूबे हुए पत्थर, घास
और तैर रही मछलियां भी साफ दिखाई दे रही
थीं।
लड़की को झपकी आ गई। वो बाईं ओर अपना
सिर टिका चुकी थी। बस की हलचल से भी उसके
शरीर में कोई हलचल नहीं हो रही थी। मैं समझ
रहा था कि वह झपकी लेने की मुद्रा मंे भी सतर्क
थी। ऐसे कई अवसर आए जब समूची बस दांयी ओर
काफी झुकी थी। मगर उस लड़की की देह तो जैसे
अपने बांयी ओर चिपक गई थी। उसका संतुलन देख मैं
हतप्रभ था।
बस एक छोटे से बाजार के बीचों-बीच खड़ी हो
गई। दोनों ओर ढाबे ही ढाबे दिखाई दिए। चारों
ओर भोजनालयों से आनी वाली खुशबू फैल गई।
कंडक्टर ने आवाज दी-‘‘खाना खा लो भई। बस
आधा घण्टा रुकेगी।’’ सवारियां धड़ाधड़ नीचे
उतरने लगी। मैंने सोचा-‘‘अब तो इस लड़की से
खाना खाने का अनुरोध कर बातचीत शुरू करता
हूं। फिर पूछ ही लेता हूं कि आपका नाम क्या है।’’
मैं सीट से उठा और औपचारिक रूप से बस से बाहर
की ओर जाने लगा। फिर जैसे मुझे उस लड़की का
ख्याल आया हो। मैंने लड़की की ओर मुड़ने का
अभिनय किया तो देखता हूं कि वह घर के बने आलू
के परांठे आचार के साथ खाने में मशगूल है। इसी
उधेड़बुन में पांच-सात मिनट तो निकल गए। अब मेरा
लक्ष्य पेट की कबलाहट को दूर करना था।
लिहाजा में एक ढाबे की ओर मुड़ गया।
चालीस मिनट बीत गए। सवारियां डकार लेती
हुई, पान-सुपारी, सौंप-इलायची खाती हुई बस में
आ चुकी थी। कंडक्टर ने एक नजर समूची बस मंे
दौड़ाई। कंडक्टर ने सीटी बजाई और ड्राइवर ने बस
को दौड़ाना शुरू कर दिया। अधिकांश सवारियां
अब ऊंघने लगी थीं। लड़की ने भी अब सो जाने की
मुद्रा में आंखें बंद कर ली। उसके शांत चेहरे पर संतोष
के भाव नजर आ रहे थे। शायद घर के खाने के जायके
का यह असर है। घर के खाने में नमक-मिर्च-तेल से
लेकर स्वाद तक में अंतर होता है।
दोपहर का सूरज बस की छत पर कब आया। पता
ही नहीं चला। मेरी उधेड़बुन में कोई कमी नहीं
आई। बहरहाल मैं सोच रहा था कि अब चाहे जो
भी हो लड़की के जागने पर बातचीत का
सिलसिला अवश्य शुरू करुंगा। अब मैं प्रकृति के
नजारों का लुत्फ उठाने में मशगूल हो गया।
वाकई भारत विविधताओं से भरा देश है। घर से
चलते समय हमने मैदान छोड़ा। पहाड़ी रास्ते को
अंगीकार किया। प्रकृति प्रदत्त नदी, धारे,
शंकुकार वृक्षों के सदाबहार वन, शीतल हवा, बर्फ
से ढके पहाड़ के साथ कोस-कोस पर खान-पान,
वेश-भूषा में आदिम भिन्नता देखने को मिलती है।
नजारों को देखते-देखते मैं भी झपकी लेने लगा। तेज
झटके से बस की गति का प्रवाह रुका तो कंडक्टर
की आवाज सुनाई दी-‘‘लो भई। जिसने चाय पीनी
है पी लो। अब बस सीधे कुराड़ जाके रुकेगी।’’
अलसायी हुई अधिकांश सवारियां उठी और
तेज कदमों से बस को खाली करने लगी। मैंने मन
बना लिया कि अब तो इस लड़की से बात करुंगा।
पूछूंगा-‘‘आपका नाम क्या है? कुराड़ ही रहती
हो? क्या करती हो?’’
तभी मेरे आगे वाली सीट पर बैठी सवारी ने
मुझसे कहा-‘‘भाई साहब। जरा मदद करेंगे? ये कट्टा
नीचे उतारना है। ढाबे वाले का है।’’
‘‘हां-हां।’’ मैंने जवाब दिया और काफी
मशक्क्त के बाद वह कट्टा ढाबे वाले को सौंप
दिया। सवारी ने चाय का आग्रह किया, जिसे मैं
टाल नहीं सका। बस की ओर नजर दौड़ाई तो
लड़की सीट पर बैठे-बैठे डिस्पोजल गिलास में चाय
सुड़क रही थी। पन्द्रह मिनट के अंतराल पर बस चल
पड़ी। उसकी गति पहले से तेज हो चुकी थी। शाम
हो चुकी थी। सूरज एक विशालकाय पहाड़ की
ओट में छिप चुका था। लड़की अब कोई पत्रिका
पढ़ रही थी। पढ़ क्या रही थी। रंगीन चित्रों को
देखती और मुस्कराती जाती। मैं सोच रहा था
कि जैसे ही वह पत्रिका को उलटना-पलटना बंद
करेगी। पत्रिका मांगने के बहाने ही बातचीत का
सिलसिला शुरू कर दूंगा। तभी उसके ठीक पीछे
बैठी महिला ने कहा-‘‘बेटी। देख ली है तो जरा
मुझे देना।’’
लड़की ने एक पल भी नहीं गंवाया। कोई
टिप्पणी नहीं की और पत्रिका पीछे की ओर
पकड़ा दी। मैं मन ही मन खुद पर झल्ला रहा था।
मैंने एक नजर फिर लड़की को देखा। उसने सुगन्धित
सुपारी का एक पाउच खोला और सुपारी मुंह में
डाल ली। भीनी-भीनी खुशबू के साथ उसके होंठ
भी रसीले हो उठे। बस एक बार फिर रुकी। मैंने
सोचा-‘‘अब क्या हुआ?’’
तभी लड़की की सीट के पीछे बैठी महिला ने
कहा-‘‘चल बेटी। कुराड़ आ गया।’’ लड़की अपना
सामान टटोलने लगी। मैं हैरान और परेशान खड़ा
ही हुआ था कि मुझे बस के दरवाजे पर अतुल की
आवाज सुनाई दी-‘‘अब सीट भी छोड़। आ जा। तुझे
भी यहीं उतरना है।’’
मैं कभी लड़की को देख रहा था तो कभी उस
औरत को, जिसने वह पत्रिका अपने बैग में ठंूस ली
थी। लड़की इत्मीनान से अपना सामान समेट रही
थी।
मैं अतुल के साथ बस से बाहर आ चुका था। उसने
पूछा-‘‘कैसा रहा सफर?’’
मैं क्या कहता? कहा-‘‘अच्छा रहा।’’ मैंने पीछे
मुड़कर देखा। लड़की उस औरत के साथ कदम बढ़ाती
हुई पश्चिम दिशा में ओझल हो गई। ॰॰॰

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