Tuesday 27 October 2015

The story- बस वाली लड़की

बस वाली लड़की
1 / 1
‘‘कोई बाहर तो नहीं रह गया?’’ कंडक्टर ने गरदन
घुमाते हुए सवारियों से पूछा। सब चुप रहे। हाथ के
पंखे की तरह कंडक्टर का सिर इधर-उधर डोला।
होंठ बुदबुदाता हुआ वह सवारियां गिनने लगा।
अपने कानों को छूकर उसने हाथ जोड़े। आंख मूंदते
हुए बोला-‘‘चलो उस्ताद।’’
ड्राइवर जैसे आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा
हो। बस सरकने लगी। दमकता चेहरा लिए हुए मेरी
बाईं ओर एक लड़की बैठी हुई थी। लड़की जींस और
खुले गले की मर्दाना शर्ट पहने हुए थी। उसकी देह
की महक कपड़ों पर छिड़के मंहगे इत्र के कारण दब
गई थी। इत्र की खुशबू से मेरा ध्यान बरबस उसी
की ओर जा रहा था। उसने बाएं हाथ से खिड़की
का शीशा सरकाया और बाहर देखने लगी।
मैंने गौर से उसे देखा। मगर बेहद फुर्ती से उस पर
नजर दौड़ाई। लड़की का गौरा रंग, कमर तक बिखरे
हुए लंबे काले बाल। जिन्हें वे हथेलियों से
संभालती। सिर से लेकर गरदन तक बार-बार सहेजती
ओर छोड़ देती। बाहर की हवा लड़की के चेहरे को
छूती हुई बालों को बिखेर रही थी। उसके बालों
से चुनिंदा बाल छितरा कर मेरे बाएं गाल और
कभी नाक के आस-पास तक आ जाते। मैं उन्हें
किसी बाधा के रूप में नहीं ले रहा था। एक
अनजानी सी विशेष खुशबू उसके बालों से आ रही
थी। जो मुझे फिर हवा के तेज झोंकों के आने का
इंतजार करा रही थी।
उसका बदन सुडौल था। देह का मांस जांघों से
जींस में उभार ले रहा था। बस बलखाती हुई, झटके
लेती हुई, कभी-कभार उछल रही थी। मगर लड़की
व्यवस्थित थी। उसे बस में सफर करने का अभ्यास
था। वहीं मैं कभी बाएं तो कभी दांए छितरा
रहा था। दस मिनट के सफर में ही मेरा बांया
कांधा उसके दाए कांधे से पांच-सात बार तो
टकरा ही गया था। मगर उसे मेरा टकराना सहज
और सरल लगा। शायद उसने इसे बस के सफर का एक
भाग मान लिया था।
जैसे ही मेरी देह का कोई अंश उसकी देह से छूता
तो मुझे लगता कि बस वक्त यहीं रुक जाता तो
कितना अच्छा होता। मगर वहीं दूसरी ओर यह
भी विचार मन में आता कि लड़की इस अनजाने से
व्यवहार को अन्यथा न ले ले। लड़की ने अपनी भौंहें
करीने से व्यवस्थित की हुई थीं। आंखों में काजल
लगा हुआ था, जो उसके चेहरे की कांति बढ़ा रहा
था। कानों में स्टाइलिश झुमके, जिनकी लटकन
मेरा जरूरत से ज्यादा ध्यान बंटा रही थी। लड़की
के पतलेे होंठों पर उसी की त्वचा से मेल खाती
लिपिस्टिक चस्पा थी, जिसकी महक इत्र से आने
वाली महक से अलग थी।
मैं जैसे ही उसके बालों से आने वाली महक और
कभी उसके कपड़ों में छिड़के हुए इत्र की महक की
तुलना करता तो उसके होंठों की लिपिस्टिक
की महक मेरा ध्यान बंटाती। फिर मैं सोचता कि
ये मेरी मूर्खता है। भला लिपिस्टिक में भी कोई
खुशबू होती है। हाथों के नाखूनों में ब्राण्डेड सूर्ख
लाल नेल पाॅलिश, बाईं नाक में सानिया मिर्जा-
सी नथ और पैरों में मर्दाना मगर गुलाबी जूते। कुल
मिलाकर मैंने आज तक किसी लड़की को इतना
गौर से पहले नहीं देखा था।
अतुल ने पत्र में लिखा था-‘‘देहरादून से चार बजे
एक ही बस चलती है। पैंतीस-चालीस की स्पीड से।
पहाड़ी और घुमावदार सड़कें। कुराड़ आएगा तो
मंसूरी भूल जाएगा। लड़की देखने जाना है। तू रहेगा
तो हौसला बना रहेगा। यहां नेटवर्क नहीं है।
एस.टी.डी.-पी.सी.ओ. भी नहीं हैं। एक सप्ताह के
लिए आना है। मैं बीस के बाद से तेरा इंतजार
करुंगा।’’
दो-तीन तक तो सोचता ही रह गया। फिर
सोचा-‘‘अतुल को जब तक मेरा पत्र मिलेगा, उससे
पहले तो मैं मिल-मिलाकर वापिस भी लौट
आऊंगा। आऊटिंग ही सही।’’
आज इक्कीस तारीख है। यही वजह थी कि मैं
आज सुबह तीन बजे उठ गया। पैकिंग रात को ही
कर ली थी। लंबे सफर की कल्पना से मेरा जी
मिचला रहा था। मगर जाना तो था ही। बस
अड्डा समय से पहले ही पंहुच गया। कंडक्टर के पीछे
वाली सीट पर एक लड़की बैठी थी। बगल की सीट
खाली थी। मैं उसी में बैठ गया। वो लड़की एक
सेंटीमीटर भी नहीं खिसकी। उसने मेरी ओर देखा।
मुझे सिर से पांव तक घूरा। मैं सकपका गया था।
उसके बाद वो खिड़की से बाहर देखने लगी थी।
बाहर अभी अंधेरा ही पसरा हुआ था। मैंने
सोचा-‘‘चलो। सफर अच्छा रहेगा। लड़की से बातों
ही बातों में समय का पता ही नहीं चलेगा।’’
बस ने शहर के मुख्य मार्ग को अलविदा कह
दिया था। तेज पीली रोशनी वाली स्ट्रीट
लाइटें अब पीछे छूट चुकी थीं। रात खुलने और जगने
के बीच का समय था। बस की गति के साथ पीछे
छूटते पेड़ भिन्न-भिन्न मद्धिम आकृतियां बनाकर
भ्रम पैदा कर रहे थे। मैंने सोचा-‘‘अब बात करता हूं।
पूछता हूं कि कहां जा रही हो?’’ तभी कंडक्टर ने
बस के भीतर की लाइट बुझा दी। लड़की को न
संकोच हुआ और न ही वह सिकुड़ी। भोर होने में
अभी वक्त था। एक-दूसरे के चेहरे अभी नहीं दिखाई
दे रहे थे। बस ने गति पकड़ ली थी।
लगभग एक घंटे का सफर बीत चुका था। अब पेड़,
पहाड़, आसमान और बादल दिखाई देने लगे। लड़की
सीट के पिछले हिस्से पर अपना सिर टिकाए हुए
थी। उसकी आंखें बंद थी। मैंने अपलक उसे निहारा
तो उसने आंखें खोल ली। हम दोनों की आंखंे चार
हुईं। मैंने अपनी आंखें झुका ली। कुछ समय यूं ही
बीत गया।
तभी एक बुजुर्ग ने गुहार लगाई-‘‘ड्राइवर साब।
चाय तो पिलवा दो। बस अड्डे की चाय तो थकी
हुई थी। अब तो सुबह भी खुल गई है।’’ कोई कुछ
नहीं बोला। कुछ ही देर बाद बस चाय के एक ढाबे
के पास खड़ी थी। मैंने सोचा-‘‘ये समय अच्छा है।
बातचीत शुरू करने का। इसे चाय के लिए कहता हूं।’’
मैंने लड़की की ओर देखा तो वह खिड़की से चाय
के ढाबे को गौर से देख रही थी। लड़की ने ढाबे
वाले को बांये हाथ की तर्जनी से एक चाय का
इशारा कर दिया। ढाबे वाले ने सिर हिलाया और
बनी बनाई चाय का गिलास नौकर को पकड़ा
दिया। मैं बस से उतरकर चाय पीने चला गया।
लगभग बारह मिनट के अंतराल पर बस रवाना हो
गई। यात्री चाय-पानी पीकर और लघु शंका का
निवारण कर तरोताजा महसूस कर रहे थे। एक मैं था
कि खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। मैंने
चने का एक पैकेट खरीद लिया था। सोचा-‘‘चलो
चना शेयर करने के बहाने ही सही इससे बात शुरू
करता हूं।’’ मैंने लड़की की ओर देखा तो वह चिप्स
का बड़ा पैकेट खोल चुकी थी। उसके दूसरे हाथ में
मल्टीनेशनल कंपनी का कोल्ड ड्रिंक्स था। मैं
समझ गया कि उसका चिप्स मेरे चने पर भारी पड़
चुका है।
सुबह की बेला की धूप सुहानी लगी। मैं चना
खा चुका था। मगर वह लड़की चिप्स और ड्रिंक्स
का ऐसा समन्वय बिठा रही थी कि पियक्कड़ों
की पंगत भी शरमा जाए। मैंने देखा कि वह एक
चैथाई ड्रिंक्स ही सिप कर पाई थी। इस गति से
उसने एक घंटा चिप्स और ड्रिंक्स में खपा दिया।
बस से बाहर का नजारा देखते ही बन रहा था।
चीड़, देवदार, बुरांश के वृक्षों से लदा वन सड़क के
दोनों ओर नजर आने लगा था। सड़क लगातार
ऊंचाई की ओर बढ़ रही थी। बस मोड़ों पर हांफने
लग जाती। यकायक उसकी गति धीमी हो
जाती। मोड़ के बाद फिर बस घूं-घूं कर आगे बढ़ने लग
जाती। अचानक बस रूकी तो किसी ने
पूछा-‘‘क्या हुआ?’’
कंडक्टर ने तपाक से जवाब दिया-‘‘कुछ नहीं।
इंजन गरम हो गया है। जरा इसके थोपड़े पर भी
पानी छिड़के देते हैं। जिसे हलका होना हो, हो
जाओ। अब बस खाना खाने के लिए ही रुकेगी।’’
मैंने सोचा-‘‘अब इस लड़की से पूछता हूं कि आप
उतरंेगी?’’ तभी मेरे दांयी ओर बैठी एक बच्ची ने मेरे
दांयी कोहनी पर उल्टी कर दी। इससे पहले की वो
दूसरा भभका मेरे ऊपर उड़ेलती। मैं पानी के धारे
की ओर दौड़ा। मैंने तबियत से अपनी कमीज की
दांयी आस्तीन धो डाली। पानी के धारे से मुड़ा
तो उसी लड़की से जा टकराया। वह मेरी
हड़बड़ाहट को भांपते हुए हौले से मुस्करा दी। मेरा
तो हलक जैसे सूख गया था। उसने धारे से पानी
पिया और मुझसे पहले अपनी सीट पर जाकर बैठ गई।
लड़की न होती तो मैं उस बालिका के थप्पड़
तो रसीद देता। नहीं तो ऊंघ रही उसकी मां को
चार बातें जरूर सुनाता। मगर चुप रहा। सड़क के
किनारे बांयी ओर इठलाती और बलखाती हुई
नदी बहती हुई दिखाई दी। न जाने वो कब से
हमारे साथ थी। मगर मेरा ध्यान तो लड़की की
ओर ही था। बालिका की कै के बाद से ही मैं अब
अपना ध्यान इधर-ऊधर बंटाना चाह रहा था। नदी
का जल इतना साफ था कि डूबे हुए पत्थर, घास
और तैर रही मछलियां भी साफ दिखाई दे रही
थीं।
लड़की को झपकी आ गई। वो बाईं ओर अपना
सिर टिका चुकी थी। बस की हलचल से भी उसके
शरीर में कोई हलचल नहीं हो रही थी। मैं समझ
रहा था कि वह झपकी लेने की मुद्रा मंे भी सतर्क
थी। ऐसे कई अवसर आए जब समूची बस दांयी ओर
काफी झुकी थी। मगर उस लड़की की देह तो जैसे
अपने बांयी ओर चिपक गई थी। उसका संतुलन देख मैं
हतप्रभ था।
बस एक छोटे से बाजार के बीचों-बीच खड़ी हो
गई। दोनों ओर ढाबे ही ढाबे दिखाई दिए। चारों
ओर भोजनालयों से आनी वाली खुशबू फैल गई।
कंडक्टर ने आवाज दी-‘‘खाना खा लो भई। बस
आधा घण्टा रुकेगी।’’ सवारियां धड़ाधड़ नीचे
उतरने लगी। मैंने सोचा-‘‘अब तो इस लड़की से
खाना खाने का अनुरोध कर बातचीत शुरू करता
हूं। फिर पूछ ही लेता हूं कि आपका नाम क्या है।’’
मैं सीट से उठा और औपचारिक रूप से बस से बाहर
की ओर जाने लगा। फिर जैसे मुझे उस लड़की का
ख्याल आया हो। मैंने लड़की की ओर मुड़ने का
अभिनय किया तो देखता हूं कि वह घर के बने आलू
के परांठे आचार के साथ खाने में मशगूल है। इसी
उधेड़बुन में पांच-सात मिनट तो निकल गए। अब मेरा
लक्ष्य पेट की कबलाहट को दूर करना था।
लिहाजा में एक ढाबे की ओर मुड़ गया।
चालीस मिनट बीत गए। सवारियां डकार लेती
हुई, पान-सुपारी, सौंप-इलायची खाती हुई बस में
आ चुकी थी। कंडक्टर ने एक नजर समूची बस मंे
दौड़ाई। कंडक्टर ने सीटी बजाई और ड्राइवर ने बस
को दौड़ाना शुरू कर दिया। अधिकांश सवारियां
अब ऊंघने लगी थीं। लड़की ने भी अब सो जाने की
मुद्रा में आंखें बंद कर ली। उसके शांत चेहरे पर संतोष
के भाव नजर आ रहे थे। शायद घर के खाने के जायके
का यह असर है। घर के खाने में नमक-मिर्च-तेल से
लेकर स्वाद तक में अंतर होता है।
दोपहर का सूरज बस की छत पर कब आया। पता
ही नहीं चला। मेरी उधेड़बुन में कोई कमी नहीं
आई। बहरहाल मैं सोच रहा था कि अब चाहे जो
भी हो लड़की के जागने पर बातचीत का
सिलसिला अवश्य शुरू करुंगा। अब मैं प्रकृति के
नजारों का लुत्फ उठाने में मशगूल हो गया।
वाकई भारत विविधताओं से भरा देश है। घर से
चलते समय हमने मैदान छोड़ा। पहाड़ी रास्ते को
अंगीकार किया। प्रकृति प्रदत्त नदी, धारे,
शंकुकार वृक्षों के सदाबहार वन, शीतल हवा, बर्फ
से ढके पहाड़ के साथ कोस-कोस पर खान-पान,
वेश-भूषा में आदिम भिन्नता देखने को मिलती है।
नजारों को देखते-देखते मैं भी झपकी लेने लगा। तेज
झटके से बस की गति का प्रवाह रुका तो कंडक्टर
की आवाज सुनाई दी-‘‘लो भई। जिसने चाय पीनी
है पी लो। अब बस सीधे कुराड़ जाके रुकेगी।’’
अलसायी हुई अधिकांश सवारियां उठी और
तेज कदमों से बस को खाली करने लगी। मैंने मन
बना लिया कि अब तो इस लड़की से बात करुंगा।
पूछूंगा-‘‘आपका नाम क्या है? कुराड़ ही रहती
हो? क्या करती हो?’’
तभी मेरे आगे वाली सीट पर बैठी सवारी ने
मुझसे कहा-‘‘भाई साहब। जरा मदद करेंगे? ये कट्टा
नीचे उतारना है। ढाबे वाले का है।’’
‘‘हां-हां।’’ मैंने जवाब दिया और काफी
मशक्क्त के बाद वह कट्टा ढाबे वाले को सौंप
दिया। सवारी ने चाय का आग्रह किया, जिसे मैं
टाल नहीं सका। बस की ओर नजर दौड़ाई तो
लड़की सीट पर बैठे-बैठे डिस्पोजल गिलास में चाय
सुड़क रही थी। पन्द्रह मिनट के अंतराल पर बस चल
पड़ी। उसकी गति पहले से तेज हो चुकी थी। शाम
हो चुकी थी। सूरज एक विशालकाय पहाड़ की
ओट में छिप चुका था। लड़की अब कोई पत्रिका
पढ़ रही थी। पढ़ क्या रही थी। रंगीन चित्रों को
देखती और मुस्कराती जाती। मैं सोच रहा था
कि जैसे ही वह पत्रिका को उलटना-पलटना बंद
करेगी। पत्रिका मांगने के बहाने ही बातचीत का
सिलसिला शुरू कर दूंगा। तभी उसके ठीक पीछे
बैठी महिला ने कहा-‘‘बेटी। देख ली है तो जरा
मुझे देना।’’
लड़की ने एक पल भी नहीं गंवाया। कोई
टिप्पणी नहीं की और पत्रिका पीछे की ओर
पकड़ा दी। मैं मन ही मन खुद पर झल्ला रहा था।
मैंने एक नजर फिर लड़की को देखा। उसने सुगन्धित
सुपारी का एक पाउच खोला और सुपारी मुंह में
डाल ली। भीनी-भीनी खुशबू के साथ उसके होंठ
भी रसीले हो उठे। बस एक बार फिर रुकी। मैंने
सोचा-‘‘अब क्या हुआ?’’
तभी लड़की की सीट के पीछे बैठी महिला ने
कहा-‘‘चल बेटी। कुराड़ आ गया।’’ लड़की अपना
सामान टटोलने लगी। मैं हैरान और परेशान खड़ा
ही हुआ था कि मुझे बस के दरवाजे पर अतुल की
आवाज सुनाई दी-‘‘अब सीट भी छोड़। आ जा। तुझे
भी यहीं उतरना है।’’
मैं कभी लड़की को देख रहा था तो कभी उस
औरत को, जिसने वह पत्रिका अपने बैग में ठंूस ली
थी। लड़की इत्मीनान से अपना सामान समेट रही
थी।
मैं अतुल के साथ बस से बाहर आ चुका था। उसने
पूछा-‘‘कैसा रहा सफर?’’
मैं क्या कहता? कहा-‘‘अच्छा रहा।’’ मैंने पीछे
मुड़कर देखा। लड़की उस औरत के साथ कदम बढ़ाती
हुई पश्चिम दिशा में ओझल हो गई। ॰॰॰

Sunday 25 October 2015

The story- दीवार में रास्ता

दीवार में रास्ता
1 / 1
छोटी जान आज़मगढ़ आ रही हैं।
मोहसिन को महसूस हुआ कि अब दीवार में रास्ता
बनाना संभव हो सकता है।
भावज ने पोपले मुंह से पूछ ही लिया, "अरे कब आ
रही है? क्या अकेली आ
रही है है या जमाई राजा भी साथ में होंगे?
सलमान मियां को देखे तो एक ज़माना हो गया है।... वैसे,
मरी ने आने के लिये चुना भी तो रमज़ान का
महीना !" भावज की आंखों के कोर
भीग गये।
रात को सकीना ने अपनी
परेशानी मोहसिन के सामने रख दी, "सुनिये
जी, क्यों आ रही हैं छोटी
जान? अचानक पचास साल बाद क्यों हमारी याद आ
गयी? "
"कुछ साफ़ तो मुझे भी नहीं पता। सुनने में
आ रहा है कि छोटी जान इंग्लैण्ड में बड़ी
सियासी शख़्सियत बन गयी हैं। ... शायद
एम.पी. हो गयी हैं... शहर वालों ने
इज्ज़त देने के लिये बुलाया है। ... मगर उनके आने में
अभी तो देर है।"
"पता नहीं क्यों, मेरा तो दिल डोल रहा है।"
"घबरा नहीं, सब ठीक हो जाएगा !"
मोहसिन की आंखों से भी नींद
ग़ायब है। बिस्तर छोड़कर कमरे से बाहर आ गया है। ... उसके
पीछे सकीना की प्रश्न
पूछती आंखों की जोड़ी
भी साथ आ गयी है। गोल बरामदे तक चला
आया है। कभी शाही शान-ओ-शौकत वाला
गोल बरामदा आज भुतहा अहसास दे रहा है। खण्डहर सा लग रहा
है। हल्की बूंदाबांदी शुरू हो
गयी है। अपने खेतों पर निगाह डालता है।.... कितने
वर्ष बीत गये हैं... कितने दशक ! ... उसके हालात
क्यों नहीं बदलते? .. इतने बड़े घर और
इतनी ज़मीन का मालिक, इक
ग़रीब की ज़िन्दगी
जीने को क्यों अभिशप्त है?
अभिशप्त तो ये सारी प्रापर्टी
ही लगती है। बस पैसे डाले जाओ, जितने
चाहो डाले जाओ, लेकिन कहीं कोई बदलाव आऩे वाला
नहीं। प्रापर्टी तो खंडहर
बनती जा रही है... अब तो ठाकुरों ने
प्रापर्टी के भीतर आने का रास्ता तक बन्द
कर दिया है। इस मुल्क में ग़रीब का और ज़्यादा साथ
देने वाला कोई नहीं। ... फिर ऊपर से अगर
ग़रीब मुसलमान भी हो तो....... !
"छोटी जान कितने वक़्त के लिये आ रही
होंगी? ... क्या उनको पहचान भी पायेगा
मोहसिन? ... उनका आज इस जायदाद से क्या रिश्ता हो सकता है?
उनके बाक़ी भाई बहन तो यहां ज़्यादा रहे
भी नहीं... बस उनका बचपन
ही तो बीता है इस घर में ... दरिया महल
में।... क्या छोटी जान को आज भी लगाव
होगा इस घर से? .. सकीना भी न जाने
क्या क्या सोचती रहती है...।"
आवाज़ें पीछा नहीं छोड़ती
हैं। ... आवाज़ें कभी कभी सवाल बन
जाती हैं तो कभी आईना बन कर सामने
खड़ी हो जाती हैं। मोहसिन को ये आवाज़ें
कभी भी कहीं से
भी सुनाई देने लगती हैं। क्या कारण है कि
इतनी बड़ी जायदाद का अकेला रखवाला
समाज में अपना कोई स्थान नहीं बना पाया? जबकि
इसी प्रापर्टी के दूसरी तरफ़
रहने वाली संध्या ठाकुर सियासत में अहम् स्थान बनाए
हुये है।... उसका पति जनार्दन ठाकुर जाना माना डाक्टर है... उनसे
मुक़ाबला भी तो नहीं कर सकता... अगर
सबकुछ बेच बाच दे तो कहीं तीन बेडरूम
का सुन्दर सा घर ले कर अपने परिवार को रख सकता है - सुख दे
सकता है अपनी औलाद को ;
बीवी को और बूढ़ी मां को। ...
अचानक मेंढक टर्राने लगा है ... झींगुर
की आवाज़ भी साथ में शामिल हो
गयी है!
"नींद नहीं आ रही न? "
सकीना आ खड़ी हुई है।
"बस छोटी जान के बारे में सोच रहा था।"
"आज तो अम्मा भी बहुत बेचैन है। उन्होंने
ही तो छोटी जान को बचपन में पाला था।
आज बहुत भावुक हो रही हैं। बस कहे जा
रही हैं कि अल्लाह-ताला छोटी जान के
आने तक उन्हें सेहत बख़्श दें। उनको देखे बिना तो जन्नत
भी नहीं जाना चाहतीं।"
"कल पता करता हूं कि आख़िर आने का सबब क्या है। सोचता हूं
कि इम्तियाज़ भाई से कुवैत में बात कर लूं। शायद उनसे कोई
बातचीत हुई हो।"
"मेरा ख़्याल है कि आप सीधे लन्दन फ़ोन घुमाइये। ...
चाहें तो मोबाईल से ही कर लीजिये।... इन
लोगों के आऩे की ख़बर से मुझे न जाने क्यों
बेचैनी हो रही है।"
"बेचैनी किस बात की? " मोहसिन के माथे
पर भी विचारों की धार अपना घर
बनाती जा रही थी।
"ये लोग, हमसे प्रापर्टी वापिस तो नहीं मांग
सकते न?" सकीना की आवाज़ में भय ने
अपना चेहरा दिखा ही दिया।
"अरे नहीं! ... हमारे पास पक्के काग़ज़ हैं। ... और
फिर, अब तो ये लोग पाकिस्तानी हो गये हैं। .... यहां
भारत में इनका किसी चीज़ पर कोई हक़
नहीं रह गया। ... हमारे दादा हुज़ूर ने बाक़ायदा पेमेन्ट
कर के ख़रीदा है दरिया महल!.... अब ये सिर्फ़ हमारा
है।"
"अम्मा तो कुछ और ही कहती हैं। वे तो
इन लोगों का अहसान मानते नहीं थकतीं।
अपनी फुफिया सास को हमेशा अपनी नमाज़
में दुआ देती हैं कि हमारे जीने और रहने
का पक्का इन्तज़ाम कर गयीं।"
"अरे अम्मा की भली कही!
वे बूढी हो चली हैं। उनकी
याददाश्त भी उनकी तरह बुढ़ा
रही है।"
"फिर भी पता तो कीजिये कितने दिन के लिये
आ रही हैं; उनका प्रोग्राम क्या है।" कहते कहते
सकीना मोहसिन के और निकट आ खड़ी
होती है। गीली हवा में
सकीना के बदन की महक मोहसिन
की सांसों में तनाव उत्पन्न करना शुरू कर
देती है।
मोहसिन के जीवन से रोमांस जैसे ग़ायब ही
हो चुका है। ... एक बेटी और दो बेटों के जन्म के बाद
से जीवन केवल ज़िम्मेदारियों का पुलिन्दा बन गया है।
आज अचानक सकीना के बदन की महक
को बाहों में भर लेने को जी चाहा है।
चान्दनी रात में हल्की फुहारों के
बीच सांवली सकीना ने दिल के
तारों को झंकृत कर दिया है। मोहसिन अपने आपको रोक
नहीं पा रहा। अपने टेन्शन को सकीना के
बदन में गहरे उतार देने को बेचैन हो रहा है।...
सकीना कसमसा रही है... मोहसिन
की बाहों की गर्मी में
पिघलती जा रही है। ... कुछ
ही पलों में पास पड़ी चारपाई पर दो बदन
गुत्थमगुत्था होने लगते हैं ... कुछ देर बाद सब शान्त हो जाता है।
सुबह अपने साथ एक बार फिर वही सवाल ले आई
है। उलझनें सुलझाने का प्रयत्न करता है मोहसिन। काश !
छोटी जान अपना सियासी सुलूक यहां
इस्तेमाल कर सकें। क्या इंग्लैण्ड के सियासतदान के रुतबे से संध्या
ठाकुर प्रभावित हो सकती है?... संध्या ठाकुर
की पहुंच तो यू.पी. की सत्ता
के गलियारों में ख़ासी अन्दर तक है। ...
स्थानीय बी.जे.पी.
की बड़ी लीडर हैं। भला
सीधा सादा मोहसिन उससे पार पाये भी तो
कैसे ? लड़ाई तो दादा हुज़ूर और संध्या ठाकुर के ससुर के ज़माने से
चली आ रही है। अब्बा जान ने अगर
ठाकुरों से सुलह कर ली होती, तो
हमारी ज़िन्दगी तो बेहतर हो
जाती ! कोर्ट कचहरी भला
किसी के सगे हुए हैं क्या ? बड़े भाई तो ऐसे कुवैत
गये कि मुड़ कर पीछे नहीं देखा !
मोहसिन अकेला ही कोर्ट कचहरी से
जूझता फिर रहा है। ठाकुर परिवार से लोहा लेना कोई आसान काम
भी तो नहीं रहा। छोटी अदालत
से लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट तक मोहसिन अकेला ठाकुर परिवार से
कानूनी लड़ाई लड़ रहा है। खगेन्द्र ठाकुर स्वयं अपने
ज़माने के बड़े सर्जन थे और उनके बेटे जनार्दन और निरंजन
भी डाक्टर ही हैं। बड़े लोगों से लड़ाई ने
मोहसिन को बहुत छोटा बना दिया है। मुसतफ़ा साहब ने तो बुलवा
भी भेजा था, "क्यों मोहसिन मियां, कैसी छन
रही है ?"
"जी आप तो अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं। अब
तो ठाकुरों ने दरिया महल तक पहुंचने के रास्ते तक बन्द करवा दिये
हैं।.. भला कौन सा कानून इस बात की इजाज़त देता
है ?... लेकिन कानून भी तो अमीर
आदमी की भैंस हैं ; उसी के
हिसाब से करवट लेता है। "
"मियां दिल छोटा न करें। हम अगली मजलिस में आपका
केस रखवा देते हैं। ... इन ठाकुरों से मुझे भी कई
हिसाब तय करने हैं .. .. संध्या ठाकुर चुनाव लड़ने के चक्कर में
है। ... .. चलो छोड़ो ... बात तुम्हारी
प्रापर्टी में दाख़िल होने की हो
रही थी। ... बोलो, अबकि ठाकुरों ने क्या नई
चाल चली है?"
"अब तो उन्होंने शराफ़त की सभी हदें पार
कर दी हैं। ... हमारी दिक्कत यह है कि
कोर्ट से जब जब हमारे हक़ में कोई फ़ैसला बनता है, ठाकुर कोई न
कोई ऐसी चाल चल देते हैं कि लगता है जैसे फ़ैसला
उनके हक़ में हुआ हो।"
"पहेलियां तो बुझाइये मत मोहसिन मियां। अन्दर की बात
बताइये।"
"ठाकुरों ने हमारे घर में घुसने वाले रास्ते पर पक्की
दीवार खड़ी कर दी है। हमें
अपने ही घर में दाख़िल होने के लिये कच्चे रास्ते का दो
मील का रास्ता तय करना पड़ता है। ... अब आपको तो
मालूम है कि हमारी अम्मा कितनी
बूढ़ी हैं। उन्हें आंखों से ठीक से दिखाई
भी नहीं देता। ... हमारी बेग़म
को भी परेशानी होती है और
बच्चों को स्कूल जाने के लिये डेढ़ दो मील
की एक्सट्रा दूरी तय करनी
पड़ जाती है। हम तो अपने ही घर में
क़ैदी हो गये हैं।"
"यार तुम ये प्रापर्टी बेच क्यों नहीं देते?..
कहो तो हम ही ख़रीद लेते हैं। "
मोहसिन ये सुन कर कुछ कसमसाया।
"अरे भाई अगर यह मंज़ूर नहीं तो मजलिस के नाम
कर दो।... ख़ुद किसी ठीक ठाक घर में
रहो... अपना परिवार पालो। ... यह खेती तुम्हारे बस
का काम नहीं है।"
मोहसिन अचानक खड़ा हो जाता है। मुस्तफ़ा साहब की
तरफ़ देखता है, "भाई जान की मर्ज़ी के
बिना कुछ नहीं कर सकता। वे तो कुवैत में बैठे हैं। "
मोहसिन ने अपने कुर्ते के कफ़ को कुछ यूं कस कर पकड़ा लिया
है जैसे प्रापर्टी उसी कफ़ के काज में से
निकल कर मुस्तफ़ा साहब तक पहुंचने वाली है।
"एक बात बताओ मोहसिन मियां, आप ठाकुर से सीधे
सीधे भिड़ क्यों नहीं जाते? बिना जेहाद किये
कभी कुछ हासिल हुआ है क्या?"
"मालिक, हमारा उनसे क्या मुक़ाबला! संध्या ठाकुर बड़ी
नेता हैं; औरतों की रहनुमा हैं; उनके ख़ाविन्द बड़े
डाक्टर हैं; दबदबा है उन लोगों का। ... भला हमारी
क्या औकात है?"
"सुनिये मोहसिन मियां, बस एक बार भिड़ जाइये! अल्लाह कसम
आग लगा देंगे शहर में। .. समझ क्या रखा है इन ठाकुरों
ने? ...रजवाड़ों वाले दिन लद गये। आज का मुसलमान दबने को तैयार
नहीं है। माइनारिटी कमीशन
हमारे साथ है... आप शुरूआत करिये; हल्ला हम बोल देंगे। "
डरा सहमा मोहसिन वापिस घर आ गया। जलते हुए शहर के बारे में
सोच कर ही डर गया है। उसकी
बीमारी हल्का सा बुख़ार है और मुस्तफ़ा
साहब आपरेशन की सलाह दे रहे हैं। .... अगले
हफ़्ते फिर से कोर्ट के आर्डर आने की
उम्मीद है। ... पिछली बार अम्मा को
भी ले गया था कोर्ट में। उस बार तो जज
भी मुसलमान था - क्या अच्छा सा नाम था। ... फ़ैसला
मोहसिन ही के हक़ में हुआ था। यह
कैसी व्यवस्था है? ... कैसा निज़ाम है?
ग़रीब की कोई सुनवाई ही
नहीं! .. जज तो मोहसिन को डांट भी रहा
था, "अरे क्या मार ही डालोगे अपनी अम्मा
को? इतनी बूढ़ी औरत को
कचहरी में लाने की ज़रूरत क्या
थी?" मन में कहीं उम्मीद
थी कि शायद यही तरक़ीब
काम कर जाए।
जज ने तो आर्डर भी कर दिया था कि रास्ता खोल देना
चाहिये। दीवार तोड़ देनी चाहिये। ... लेकिन
दीवारें तोड़ना क्या इतना ही आसान है?
जज के आदेश को कार्यान्वित करने वाले भी तो होने
चाहियें। वे सब तो संध्या ठाकुर की मुट्ठी में
हैं।
संध्या ठाकुर कहने को तो महिलाओं की
हिमायती हैं; उनके हक़ की लड़ाई
लड़ती हैं; फिर मोहसिन की
बूढ़ी अम्मा और पत्नी की
दुर्दशा उनकी आंखों से कैसे छिपी रह
पाती है?...
भावज को छोटी जान के आने की सबसे
अधिक प्रतीक्षा है। या यूं कहा जाए कि
उनकी प्रतीक्षा नि:स्वार्थ है। वे केवल
अपनी बिट्टो की प्रतीक्षा कर
रही हैं, "अरे मोहसिन, तेरी बात लंदन हुई
क्या? कब आ रही है मेरी बिट्टो?... क्या
बताऊं तुम्हें, मरी जब छोटी
थी तो आम के पेड़ पर चढ़ जाया करे थी!
कच्ची कैरी की तो
चटोरी थी। बड़े बच्चे तो सभी
होस्टलों में रह कर पढ़े, एक यही थी जो
मेरे हाथ से पली! रोज़ाना डांट खावे थी।...
आ री सकीना, तुझे एक बात
बताती हूं। ... यहां घर में शक्कर रखने का एक बहुत
बड़ा सा ड्रम हुआ करता था। आदमकद से भी बड़ा...
। बिट्टो को शक्कर खाने का बहुत शौक था। न जाने कैसे
चढ़ी उस ड्रम पर और धड़ाम से अन्दर छलांग लगा
गई। पहते तो मज़े मज़े से शक्कर खाती
रही। जब जी भर गया तो बाहर निकलने
की सोची। अब इतने ऊंचे ड्रम पर वापिस
चढ़े कैसे? जितनी ऊपर चढ़ने की कोशिश
करे उतने ही पांव शक्कर में धंसे जाएं। डर के मारे
किसी को आवाज़ भी नहीं दे पा
रही थी। घबरा गई। रूआंसी हो
कर वहीं सो गई। घर में ढूंढ मच गई। सब उसे ढूंढ
रहे थे. न कहीं दिखाई दे और न ही
सुनाई। अचानक मुझे लगा कि मुझे कोई आवाज़ दे रहा है। .. भावज
मुझे निकालो!... मैं हैरान कि आवाज़ आ कहां से रही
है। आवाज़ शर्तिया बिट्टो की ही
थी। अरे.... कितनी मुश्किलों से
मरी को उस ड्रम में से निकाला। .. फिर जो
उसकी जम कर पिटाई हुई है। फूफी जान
उसे मारे जाएं और मैं उसके बदन को ढके जाऊं। मुझे
ही कितने थप्पड़ पड़ गये। मजाल है उसमें ज़रा
भी बदलाव आ जाए। सारा सारा दिन ख़ुराफ़ातें
सूझती थीं उसको। .... पता
नहीं कहां कहां से घूमती बड़े पुल के
नीचे जा छुपती थी...
मरी को सभी खेल लड़कों वाले पसन्द
थे।... उसके दोस्तों की फ़ेहरिस्त भी
कमाल की थी... रामदीन
धोबी का बेटा, शंभुनाथ माली का बेटा, और
रसोइये का बेटा तो उसका ख़ास दोस्त था।... और फिर
पढ़ी भी तो यहीं के
सरकारी इस्कूल में। इसीलिये
बाक़ी भाई बहनों की तरह अंग्रेज़
नहीं बन पाई। मगर मेरी बिट्टों पहुंच
गयी इंग्लिस्तान।... कितनी चाह
थी कि उसकी डोली दरिया
महल से उठती... इस घर की
दीवारों तक से जुड़ी थी
मेरी बिट्टो! ... लेकिन शादी के लिये तो उसे
सरहद पार जाना पड़ा।"
सकीना को आजकल अम्मां की भावनाएं
रोज़ाना सुननी पड़ती हैं। उसने स्वयं तो
छोटी जान को कभी देखा तक
नहीं। भला उन्हें छोटी जान क्यों कहा जाता
है, यह तक तो उसे मालूम नहीं। वह बस उतना
ही जानती है जो उसकी सास
उसे बता देती है। उसकी सास ने दरिया
महल के शाही ठाठ भी देखे हैं; और
आज की ग़रीबी
भी। छोटी जान के आने से उनके अपने
जीवन में क्या बदलाव आ सकते हैं? बस
यही सोचती रहती है। ...
फिर अपने घर की तरफ़ देखती है।.. क्या
छोटी जान इस घर में एक रात भी बिता
पायेंगी? बिना एअरकंडीशन के कहां सो
पाएंगी वे?
छोटी जान आकर रहेंगी कहां? उनका
मेज़बान कौन होगा? क्या वे पहले हमें मिलने आएंगी या
फिर कहीं ठहर कर हमें वहां बुलाएंगी?
शहर में कोई बड़ा होटल तो है नहीं। .. शायद
शिवली कालेज के प्रिंसिपल ने बुलवाया होगा। ... या फिर
किसी राजनीतिक पार्टी
की मेहमान भी हो सकती
हैं.... एक तो मोहसिन भी ठस के ठस बैठे रहते
हैं... अभी तक तो कुवैत भी फ़ोन
नहीं किया। ... बस छोटी जान हमारा एक
काम करवा दें तो हमारा जीवन सुधर जायेगा।... बस
हमारा रास्ता खुलवा दें... दीवार में एक रास्ता बनवा दें...
संध्या ठाकुर शायद उनकी सुन ही लें।
मोहसिन स्वयं परेशान है। अगर छोटी जान दो चार दिन
रुकती हैं, तो उनको रखा कहां जाएगा?.. दिक्कत तो ये
है कि सलमान मियां भी साथ होंगे। अब
छोटी जान तो फिर भी घर की
हैं, मगर फूफा जान के सामने तो इज़्ज़त बचा कर
रखनी ही होगी।.. वैसे अगर
छोटी जान एक मीटिंग संध्या ठाकुर के साथ
करवा दें तो मामला सुलझ भी सकता है।... अगर अब्बा
हुज़ूर ने डा. खगेन्द्र ठाकुर से कोई समझौता कर लिया होता तो मामला
इतना पेचीदा न बनता।
सकीना की अलग समस्या है, "अम्मा, ये
छोटी जान का हमसे रिश्ता क्या लगता है? आप
कहती हैं कि आपने इन्हें पाला है। मोहसिन कुछ और
लम्बा सा रिश्ता बताते हैं। आख़िर वे हमारी
लगती क्या हैं? "
"वो क्या है बहूरानी, ये जो दरिया महल है, इसके
मालिक थे डा. अमानुल्लाह। उनकी बेग़म के जो सग़े
भाई थे वे मोहसिन के दादा थे। छोटी जान डा.
अमानुल्लाह की तेरहवीं औलाद हैं।
उनकी मौत के वक्त छोटी जान बस दो साल
की रही होंगी। अब
फूफी जान के ज़िम्मे तो सारे काम आन पड़े। वे
ही कचहरी संभालती
थीं और वे ही खेती।... तो
ऐसे में छोटी जान की सारी
ज़िम्मेदारी मेरे सिर आन पड़ी। वह जब
तक आज़मगढ़ में रही, उसकी हर
छोटी बड़ी ज़रूरत का ख़्याल मैं
ही रखती थी।... बिट्टो को दूध
पीने में बहुत दिक्कत होती
थी। दूध पीने के बाद हमेशा उसके पेट में
दर्द होता था.. बहुत चिल्लाती थी..
फूफी जान को कभी समझ
नहीं आता था कि उसे दूध पचता नहीं
है... वो मरी अंग्रेजी में क्या बोले हैं..
उसे अलर्जी है दूध से। ... मेरे तो पीछे
पड़ी रहती थी..
कहती... भावज...आप इतना हंसती क्यों
हैं?...(ठण्डी सांस).. अब तो हंसे हुए
भी एक ज़माना हो गया है।" भावज का पोपला मुंह एक
बार फिर यादों में खो गया है।
चाहत सकीना की भी एक
ही है कि छोटी जान एक बार संध्या ठाकुर
से मिलकर दीवार में से रास्ता खुलवा दें। जवान
लड़की को खेतों में से होकर वक़्त बेवक़्त जाना पड़ता
है; कहीं कोई अनहोनी न घट जाए। पति
पर भी झुंझलाहट हो रही है कि
अभी तक लंदन फ़ोन पर बात नहीं
की है।
मोहसिन बिना बात किये ही सपने देखे जा रहा है।
सलमान मियां ख़ुद भी तो इतने बड़े बैंकर हैं।
छोटी जान और सलमान मियां से घर की
मरम्मत के लिये भी तो बात की जा
सकती है। अगर एक कमरा और पक्का बनवा लिया
जाए, तो नई बैठक सज सकती है। .. मगर फ़िलहाल
जो बैठक है उसमें भी तो कोई फ़र्नीचर
नहीं है।... वैसे भी तो ईद के अलावा घर
में आता ही कौन है?... बस ईद से पहले टेण्ट वाले
से फ़र्नीचर किराए पर ले लिया जाता है। हफ़्ते भर
की अय्याशी के बाद फ़र्नीचर
वापिस हो जाता है। पिछली ईद पर तो कोई
भी मेहमान घर तक नहीं पहुंच पाया। लोग
साफ़ कहने लगे हैं कि कौन खेतों में से हो कर आए। मोहसिन मियां,
आप लोग ही हमारे यहां आ जाया करिये। .. आज ज़रूर
छोटी जान को फ़ोन करेगा। मोहसिन ने निर्णय ले लिया
है।
फ़ोन भी तो अजीब किस्म की
चीज़ है। उस पर मोबाईल का तो कहना ही
क्या!... कभी भी कहीं
भी बज उठता है। मोहसिन भी अपने
बजाज चेतक स्कूटर पर घर से निकला ही था कि
उसका मोबाइल बज उठा। देश में मोटर साइकिल क्रान्ति आ जाने के
बावजूद मोहसिन अपने पुराने दुपहिये को जोते जा रहा है। स्कूटर
रोका.. मोबाइल पर एक अनजान नम्बर उभरते देखा.. माथे पर
सिलवटें पड़ीं...
"हेलो! "
आवाज़ में एकाएक तेज़ी आ गई।.. "अरे
छोटी जान! कैसी हैं आप?... कब आने
का पक्का किया है?... फूफा मियां भी साथ आ रहे हैं
न?... ... "
जब तक बात ख़त्म हुई मोहसिन तनाव के मारे पसीने
पसीने हो रहा था। .. अब उसमें स्कूटर चलाने
की ताक़त शायद नहीं बची
थी।... यह कैसे हो सकता है?... यह
कैसी साज़िश है?... क्या दीवार में रास्ता
बनने के बजाए दीवार और ऊंची उठा
दी जाएगी?... सक़ीना को कैसा
लगेगा? ... अम्मा क्या सोचेंगी? ये हुआ कैसे?...
अल्लाह मियां कैसे- कैसे इम्तहान लेते हैं! क्या पूरे आज़मगढ़ में
एक भी मुसलमान इस काबिल नहीं था जो
छोटी जान का मेज़बान बन पाता?
तीन महीने पहले जब एक शूटर ने
अपनी मोटर साइकिल से मोहसिन पर गोली
चलाई थी, उससे तो बच निकला था मोहसिन... मगर इस
समाचार की मार से कैसे बचा पाएगा अपने आपको?...
सकीना को बताता हूं।... अल्लाह भी कैसे
कैसे मज़ाक करता है ग़रीब बन्दों के साथ?...
सकीना को तो मोहसिन थोड़ा खिसका हुआ लगा। भला
छोटी जान ऐसा कैसे कर सकती हैं? ..
यह कैसी राजनीति है? छोटी
जान की मेज़बान संध्या ठाकुर! .. यह
नहीं हो सकता। भला संध्या ठाकुर ने ये क्या प्रपंच
रचा है। अल्लाह की मार पड़ेगी उस पर!
"बोलीं क्या छोटी जान ?"
"वो बोलीं कि कोई संध्या ठाकुर हैं जिन्होंने उन्हें बुलाया
है। बस एक रात के लिये आ रही हैं। बनारस से
आज़मगढ़ इनोवा वैन से आयेंगी। साथ में फूफा जान तो
हैं ही; दो हिन्दू जर्नलिस्ट भी हैं। ...
पहले अपने इस्कूल जाएंगी; वहां से हमारे घर आकर
दोपहर का खाना खायेंगी। फिर नेहरू हाल में उनका
पब्लिक रिसेप्शन है; शाम को प्रेस कान्फ़्रेंस हैं और रात का डिनर
संध्या ठाकुर के घर। वैसे शाम को ही
डी.एम. के साथ चाय भी है। "
"दोपहर का खाना हमारे घर?... या अल्लाह! रोज़ा नहीं
रखती हैं क्या?"
"बड़े लोगों की बड़ी बातें होती
हैं। फिर उम्र भी तो खासी हो गई है। साथ
में हिन्दू जर्नलिस्ट भी हैं। पांच लोगों के खाने
की बात कह रही हैं।"
"अगले दिन कहां जा रही हैं? ... कहीं
आसपास घूमने जा रही हैं क्या? सुनिये, क्या आपको
डी.एम. के घर चाय पर साथ नहीं ले जा
सकतीं ? आप उनसे भी बात कर सकते
हैं।"
"मैं तो यह सोचकर परेशान हो रहा हूं कि संध्या ठाकुर से हमारे बारे
में बात कब करेंगी ?"
एक लम्बी सी चुप्पी छा
जाती है। पति पत्नी दोनों गहरे सोच में डूबे
बैठे हैं। ... क्या छोटी जान को मालूम है कि संध्या
ठाकुर का परिवार हमें कितना कष्ट दे रहा है?.. फिर वे ऐसा क्यों
कर रही हैं? ... संध्या ठाकुर के गुण्डों ने तो मुझ पर
गोली भी चलाई थी... फिर क्या
कारण हो सकता है?
"अरे पगले, भला उस मासूम को कहां पता होगा कि संध्या ठाकुर ने
ही हमारी ज़मीन हड़प
रखी है। उसे तो यह भी नहीं
मालूम होगा कि संध्या उऩ्हीं ठाकुरों की बहू
है जिनको सैंतालीस में सरकार ने दरिया महल का हिस्सा
दे दिया था। ... अगर शाहिद और जमाल सैंतालीस में
पाकिस्तान न चले जाते तो ठाकुर दरिया महल के इतने बड़े हिस्से पर
कब्ज़ा नहीं कर सकते थे। उन दोनो भाईयों ने
किसी की नहीं
सुनी।... मेरी बिट्टो तो सड़सठ तक भारत
में रही... जब तक फूफी ने
उसकी शादी कराची में
नहीं कर दी... दरिया महल के साथ सबसे
गहरी तो मेरी बिट्टो ही
जुड़ी थी।.. यहां के चप्पे चप्पे से प्यार
था उसको... उसे तो इलाहाबाद और बनारस से भी बहुत
प्यार था। बहुत रोई थी जब उसकी
शादी कराची में तय हो गई
थी।,,, मेरे अलावा कोई नहीं समझ सकता
कि वो आज़मगढ़ क्यों आ रही है।... उसे
अच्छी तरह मालूम है कि दरिया महल अब उसका
नहीं है। ... लेकिन दरिया महल उसके दिल में है...
आत्मा में है। मुझे मालूम है यहां का हाल देख कर
उसकी आंखों से ख़ून के आंसू निकलेंगे। मैं
जानती हूं वह ठाकुरों से ज़रूर बात
करेगी। ... अरे पगले तूने क्या कभी बिट्टो
को बताया है कि ठाकुरों के शूटर ने तुम पे गोली चलाई
थी?.. और फिर अब दरिया महल तुम्हारी
ज़िम्मेदारी है।... वह बेचारी तो अपने
बचपन को दोबारा जीने आ रही है।.. मेरे
गले लग कर रोने आ रही है। तुम उसे अपने पचड़े में
मत फंसाओ। .. मैने तो सुना है कि जमाई राजा खासे सख़्त
आदमी हैं। न मालूम बिट्टो कैसे गुज़ारा कर
रही होगी।" भावज अपनी
कमज़ोर नज़र से पुराने चित्रों को इकट्ठा कर रही
थी। आज उनकी यादों का बांध टूट रहा था;
यादें छन- छन कर बाहर आ रही थीं।
"अरे छुटकी सी थी। वो पगला
कासिम यहां आया करता था। दोनो बंसी ले कर निकल
जाते थे मछली पकड़ने। यह छुटकी
नदी किनारे मिट्टी से केंचुए निकाल निकाल
कर बंसी पर लगा कर कासिम को देती
थीं। दोनों घन्टों मछली पकड़ते रहते। फिर
बिट्टो मछली लाकर मुझे देती।
गर्मी के मारे मुंह लाल हो जाता था उसका। मैं उसका
मुंह धुलवाती थी और उसकी
लाई मछली उसे फ़्राई करके देती
थी। कितने चाव से खाती थी
मेरी बिट्टो! मुझे तो डर ही लगा रहता था कि
कहीं कासिम को पागलपन का दौरा न पड़ जाए
मछली पकड़ते पकड़ते। मगर मजाल है कि यह छटांक
भर की छोकरी ज़रा भी डरे।
बस दो चोटियां बनवाती थी और उनमें लाल
रिबन पहन लेती थी। सारे काम लड़कों वाले।
मरी को चैन तो मिलता ही नहीं
था। चोटें तो इतनी लगतीं थीं
उसे कि बदन का कोई न कोई हिस्सा तो फटहड़ रहता
ही था। ... मगर प्यारी बहुत है
मेरी बिट्टो। ख़ुद ही देख
लीजो।"
सकीना और मोहसिन ने कभी अम्मा को
किसी के प्रति इतना भावुक होते नहीं देखा
था। कभी उनकी आवाज़
गीली होती तो
कभी आंखें। सक़ीना की
समस्या सबसे अलग है। उसे ऐसे मेहमान की
प्रतीक्षा करनी है जिसे कभी
देखा नहीं। केवल सुन सुन कर किसी
भी रिश्ते को कैसे महसूस करे! मोहसिन ने
भी छोटी जान को कितना देखा होगा?..
छोटी जान तो चालीस साल पहले
शादी करके कराची चली गईं
थी। मोहसिन तो उस वक़्त दस साल के रहे होंगे।
उनकी यादें भी कुछ ख़ास
गहरी नहीं होंगी।.. फिर
भी छोटी जान का रुतबा है... उन्होंने
विलायत में अपने लिये जगह बनाई है... कहते हैं कि पाकिस्तान
की सियासत में भी उनकी
अच्छी पैठ है... शायद यहां हिन्दुस्तान में
भी उनकी चलती हो।... एक
तो मोहसिन भी सीधी बात करना
नहीं जानते। इधर उधर की हांकने लगते
हैं। मूल मुद्दा कहीं ग़ायब हो जाता है। क्या मुझे ख़ुद
छोटी जान से बात करनी चाहिये?... मुझे तो
छोटी जान का नाम भी ठीक से
मालूम नहीं!... आज अम्मा से पूछती
हूं... अम्मा भी तो उन्हें बिट्टो ही कह
कर काम चला लेती हैं।
लंदन से एक बार फिर फ़ोन आया है। बीस
तारीख़ को आ रही हैं छोटी
जान।... बीस तारीख़... सकीना
का जन्मदिन बीस फ़रवरी; उसके पुत्र
परवेज़ का जन्मदिन बीस नवम्बर! मोहसिन और
सकीना की शादी
बीस मार्च! मोहसिन गोली से बाल बाल बचा
- बीस जुलाई! और अब छोटी जान का
आगमन - बीस सितम्बर! बीस
तारीख़ का सकीना के जीवन में
बहुत महत्व है।
"सुनिये, आप मौलवी जी से पूछिये कि
छोटी जान का बीस तारीख़ को
आना क्या अल्लाह की किसी ख़ास
मरज़ी से हो रहा है।"
"मुझे नहीं लगता कि इस मामले में मौलवी
साहब कुछ बता सकते हैं। वह रस्तोगी न्यूमोरोलोजिस्ट
है, उससे बात करता हूं। यह नम्बरों और तारीख़ों के
बारे में उसकी नालेज बेहतर है।"
"हां बात करके देखिये। शायद ये बीस
तारीख़ हमारा काम बनवा दे।"
"लेकिन छोटी जान ने कहा है कि उनके साथ दो
जर्नलिस्ट भी हैं। ... हमें कमरे में कुछ
फ़र्नीचर तो रखवाना ही पड़ेगा।"
"हां उन्नीस तारीख़ से एक हफ़्ते के लिये
टेंट वाले से भाड़े पर ले लीजिये।... एक तो सोफ़ा सेट ले
लीजिये... दो टेबल खाना लगाने के लिये... साथ में डोंगे,
प्लेटें, कटलरी वगैरह... बारह लोगों के लिये आर्डर
कर दीजिये.... उस्मान मियां को कह
दीजिये।"
"बीस की दोपहर का खाना भी
आफ़ताब के रेस्टोरेण्ट से आर्डर कर देता हूं।"
"रहने दो जी ... घर में सस्ता पड़ेगा।"
"मैं तो तुम्हें आराम देने के ख़्याल से कह रहा था। रोज़ा रख कर
तुम्हें डबल मेहनत पड़ जायेगी।"
"आप मेरी फ़िक्र छोड़िये। ... और फिर
छोटी जान तो, आपने बताया, कि लहसुन और प्याज़
भी नहीं खाती हैं।...बस एक
डिश गोश्त की बना लूंगी और एक चिकन
की... बाकी सब तो वेजिटेरियन
ही बनाना है।... अम्मा कह रही हैं कि
अचारी करेले और अरहर की दाल तो वे
ही बनाने वाली हैं। छोटी जान
को बचपन में ये दोनों चीज़ें बहुत पसन्द
थीं।"
"चलो फिर मीनू तुम ही तय कर लेना।"
"ज़रा बच्चों को एक एक जोड़ा नया बनवा दीजिये।
छोटी जान तो घर की हैं मगर फूफा जान के
सामने पुराने कपड़ों में कैसे दिखेंगे।... वैसे भी ईद पर तो
लेने ही हैं, थोड़ा पहले ही ले लेते हैं।"
"हां ये भी ठीक रहेगा। .. तुम परेशान न
होना। मैं इन्तज़ाम कर लूंगा।... पहले तो रस्तोगी से
बात कर लेता हूं। शायद यह बीस तारीख़
हमारी ज़िन्दगी में एक नया रास्ता खोल दे।"
"इंशा-अल्लाह!"
इन्तज़ार की घड़ियां भी अजीब
होती हैं। कभी कटती
नहीं और कभी धड़ाधड़ दौड़ती
हैं।... मोहसिन का जी चाह रहा है कि संध्या ठाकुर से
जा कर पूछ ले कि बीस तारीख़ का पूरा
प्रोग्राम क्या है। उहापोह मची है और
बीस तारीख़ का सवेरा भी हो
गया है। सुबह के आठ बज गये हैं और मोहसिन के दिल में
धुकधुकी हो रही है। आज वह सुबह
सुबह दीवार के पास तक चलकर आया है।
दीवार को छू भी लिया है...
दीवार के इस तरफ़ पलस्तर नहीं किया गया
है बस ईंटों में बेढब सा सीमेन्ट दिखाई दे रहा है।
दीवार के दूसरी तरफ़ पूरी
तरह से पलस्तर किया गया है। मोहसिन दीवार को ताके
जा रहा है और मन ही मन दुआ कर रहा है - या
अल्लाह छोटी जान के हाथों में ऐसी बरक़त
बख़्शना कि ये दीवार उनके हाथों से ही
टूटे!
दस बज गये हैं। सकीना रसोईघर में काम किये जा
रही है। आज गोश्त में खास तौर पर चाप्स मंगवाई
गयी हैं और चिकन मुग़लई स्टाइल का बनाया गया है।
भावज ने आज बरसों बाद किचन में कदम रखा है। वह मसालों के
साथ साथ अपनी मुहब्बत भी उंडेल
रही हैं। वहीं से मोहसिन को आवाज़
भी दे रही हैं, "अरे मोहसिन पता तो
लगइयो कहां तक पहुंचा है काफ़िला मेहमानों का?... मैं
भी अजब अहमक हूं अपनी बिट्टो को
ही मेहमान कहे जा रही हूं।" अरहर
की दाल में ज़ीरे का छौंक लगा कर उस पर
हरा धनिया छिड़क रही हैं भावज। आम के अचार के
मसाले से भरवां करेले बना रही हैं। सक़ीना
ने मीठे के लिये बाज़ार से रसमलाई मंगवाई है तो घर में
सिवइयां बनाई हैं। लगता है कि रमज़ान महीने के
बीचो बीच अचानक चांद दिखने
की उम्मीद में आज ही ईद
मनाई जा रही हो। भावज के दिल का चांद तो आज
दोपहर ही निकलने वाला है।
मोहसिन का मोबाइल बज उठा है। काफ़िला बनारस से संध्या ठाकुर
की बहन रूपा सिंह के घर से नाश्ता करके चल पड़ा
है। मोहसिन परेशान है। पहले केवल संध्या ठाकुर उनके हक़ पर
डाका डाल रही थी। अब
उसकी बहन भी साथ जुट गई है। एक
डेढ़ बजे तक स्कूल पहुंच जाएगा काफ़िला। मोहसिन से
वहीं आने को कह दिया गया है ताकि वह उन्हें अपने
घर ले जा सके। क्या संध्या ठाकुर की बहन से
छोटी जान ने बात की होगी?
सकीना बच्चों को नहाने को कह रही है।
आज उन्हें नहा कर नये जोड़े पहनने हैं। बच्चे ख़ुश हैं मगर
फिर भी कुछ सहमे सहमे हैं। आज उनके घर एक
अमीर रिश्तेदार आऩे वाला है। निलोफ़र सलाद काट कर
मां का हाथ बंटा रही है। अरशद और नवाब बरतन
धोकर पोंछ रहे हैं और मेज़ पर लगा रहे हैं। घर में
सही तौर पर त्यौहार का माहौल है। अचानक
घड़ी की सुइयां आहिस्ता आहिस्ता चलने
लगी हैं। घड़ियां प्रतीक्षा की
जो हैं।
मोहसिन सोच में डूबा है। उसने आज छोटी जान को
दिखाने के लिये ट्रैक्टर किराए पर ले रखा है; एक टोयोटा क्वालिस
भी मंगा ली है। ड्राइवर नहीं
बुलाया। ख़ुद ही चलाएगा। दोनो बेटे बार बार क्वालिस को
छूकर देख रहे हैं। मोहसिन ने अपने बाल भी एक दिन
पहले ही रंग लिये हैं। मूंछों को भी काला
किया है। साढ़े बारह बज गये हैं। यानि कि काफ़िला किसी
भी पल राजकीय उच्चत्तर कन्या
विद्यालय तक पहुंच जायेगा। सोचते ही मोहसिन के पेट
में मरोड़ सा उठा है। लपक कर लैट्रिन में दाखिल हो गया है। आज
उसने हाथ धोने के लिये भी अस्थायी वाश
बेसिन टेन्ट वाले से ही किराये पर ले लिया है। दुकान
वाले को उसकी बात ठीक से समझ
नहीं आई, वह ग़लती से दो वाश बेसिन ले
आया है। मोहसिन दोनों वाश बेसिन में पानी भर रहा है।
मोबाइल फिर बजा है। छोटी जान स्कूल पहुंच गई हैं।
भावज ने डांट लगाई है, "अरे अभी तक घर में घुसा
हुआ है। तुझे तो वहां पहले से खड़ा रहना चाहिये था। वह जब
गाड़ी से उतरती तो उसका इस्तेकबाल
करता। अब तो वो लोगों से घिर जायेगी। उसे मिलेगा कैसे?"
"अरे अम्मा तुम चिन्ता न करो। मैं उनसे बात कर लूंगा।"
मोहसिन क्वालिस के स्टीयरिंग व्हील पर
बैठ गया है अरशद और नवाब भी साथ हो लिये हैं।
आज़मगढ़ है ही कितना बड़ा? बस पांच सात मिनट में
इस्कूल के बाहर पहुंच गया। वहां भी कुछ त्यौहार का
सा माहौल लग रहा था। मोहसिन ने देखा कि लखनवी
शलवार सूट पहने, कटे बालों वाली एक महिला को
स्कूल की प्रिंसिपल हार पहना रही
थी। जीन के नीले रंग का
कुर्ता पहने एक पुरुष उनके फ़ोटो खींच रहा था। यह
ज़रूर उन पत्रकारों में से एक होगा - सोचने लगा मोहसिन। एक
बुज़ुर्ग से सज्जन के साथ लाल कमीज़ पहने एक
और पुरुष खड़ा था। मोहसिन को अन्दाज़ लगाने में ज़रा
भी कठिनाई नहीं हुई कि बुज़ुर्ग दिखाई देने
वाले सज्जन उसके फूफा हैं और लाल कमीज़ वाला
दूसरा पत्रकार। फिर ये पांचवा इऩ्सान कौन हो सकता है जिसके लिये
छोटी जान खाना बनाने की बात कह
रही थीं। कोई और दिखाई भी
नहीं दे रहा। मोहसिन ने हाथ हिला कर
छोटी जान को बताना चाहा कि वह आ चुका है। मगर
छोटी जान अपने प्रशंसकों से घिरी हुई
थीं।
मोहसिन ने देखा कि प्रिंसिपल छोटी जान को अपने कमरे
में ले गईं। साथ ही कैमरे वाला पत्रकार, बुज़ुर्ग
सज्जन और लाल कमीज़ वाला भी अन्दर
चले गये। मोहसिन कमरे के भीतर घुसने
की हिम्मत नहीं जुटा पाया। उसने बाहर से
देखा कि प्रिंसिपल ने छोटी जान को अपनी
कुर्सी पर बिठा दिया है। छोटी जान थोड़ा
शर्माते हुए मुस्कुरा रही हैं और प्रिंसिपल से बात कर
रही हैं। कैमरे वाला पत्रकार फ़ोटो खींच
रहा है। बुज़ुर्ग सज्जन न तो मुस्कुरा रहे हैं और न
ही बातचीत में कोई दिलचस्पी
दिखा रहे हैं। वे और लाल कमीज़ वाला आपस में बात
कर रहे हैं।
छोटी जान के लखनवी शलवार सूट का
सफ़ेद रंग उनके व्यक्तित्व को भव्यता प्रदान कर रहा है।
छोटी जान स्कूल में जिधर भी जा
रही हैं उनके पीछे अध्यापकों और
विद्यार्थियों की भीड़-सी चल
पड़ती है। मोहसिन ने कभी सोचा
भी न था कि छोटी जान इतनी
बड़ी हस्ती हो सकती हैं।
थोड़ी देर बाद ही संध्या ठाकुर
भी आ गई हैं। उन्हें भी जब
छोटी जान को दी जाने वाली
इज़्ज़त का अहसास हो गया, तो वे भी बुज़ुर्ग सज्जन
के साथ बातचीत में व्यस्त हो गईं। वे तीनों
अब आपस में बात कर रहे थे। अचानक वह कैमरे वाला पत्रकार
आकर इन तीनों के चित्र खींचने लगा।
छोटी जान के निकट एक बन्दर आकर उनके साथ
खेलने की मुद्रा में आ गया। छोटी जान
भी उसके साथ बात करने लगीं। फ़ोटोवाले
का कैमरा खटाखट वाली मुद्र में आ गया।
मोहसिन ने देखा कि छोटी जान ने कैमरे वाले पत्रकार को
नज़दीक बुलाया और उसे कुछ कहा। उसने अपना पर्स
निकाला और हज़ार हज़ार के कुछ नोट गिन कर एक लिफ़ाफ़े में डाले
और वह लिफ़ाफ़ा छोटी जान को दे दिया।
छोटी जान ने प्रिंसिपल के कान में कुछ कहा और वह
लिफ़ाफ़ा उनके हवाले कर दिया। मोहसिन को लगा जैसे उसके हिस्से
के कुछ पैसे बंट गये हों। किसी ने उसके हक़ पर डाका
डाल दिया हो। उसने अपने पुत्रों की तरफ़ देखा; वे दोनों
इन सभी बातों से अनभिज्ञ आपस में बातें कर रहे
थे।
छोटी जान अपने साथियों के साथ अपनी
सफ़ेद इनोवा वैन की तरफ़ बढ़ीं। स्कूल
की लड़कियों ने जो एक बार आटोग्राफ़ लेने का सिलसिला
शुरू किया तो थमने में ही नहीं आ रहा था।
छोटी जान हंसते हंसते सभी को ख़ुशियां
बांट रही थीं। संध्या ठाकुर ने उनको
अपनी कार में बिठा लिया और बाकी
सभी लोग इनोवा में समा गये। काफ़िला चल दिया। मोहसिन
ने अपनी क्वालिस वैन उनके पीछे लगा
ली।
छोटी जान की गाड़ी संध्या
ठाकुर के घर के सामने जा कर रुक गई। मोहसिन ने देखा कि
छोटी जान दीवार की तरफ़ इशारा
करके संध्या ठाकुर से कुछ बात करने लगी। संध्या
ठाकुर के चेहरे पर शर्मिन्दगी के भाव उभरे। वे जैसे
छोटी जान को कुछ आश्वासन देती
सी दिखाई दीं। इतने में मोहसिन
की जेब में मोबाइल बज उठा। छोटी जान
ही बात कर रही थीं,
"जी छोटी जान, मैं मेन रोड पर आपका
इन्तज़ार कर रहा हूं। इस्कूल से आपके साथ ही साथ
आया हूं।"
"अरे तुम स्कूल तक आये थे क्या? फिर मिले क्यों
नहीं?"
छोटी जान संध्या ठाकुर की कार से
उतरीं और मोहसिन जा कर उनसे तपाक से मिला,
"छोटी जान! कैसी हैं आप?"
छोटी जान ने उसे गले से लगा लिया, "देखो मोहसिन मैने
संध्या जी से बात कर ली है। अब तुम मेरे
पीछे इनसे मिल कर इनकी मदद मांग लेना।
अब यही तुम्हारी मुश्किल हल
करेंगी।"
"जी छोटी जान।" मोहसिन ने संध्या ठाकुर
को सलाम करते हुए कहा। उसे संध्या ठाकुर का चेहरा
दीवार में से निकले रास्ते जैसा दीखने लगा।
छोटी जान संध्या ठाकुर की कार से निकल
कर मोहसिन की क्वालिस में बैठ गईँ हैं। दोनों बेटे
पीछे की सीट पर बैठे अपने
मेहमान को टुकर टुकर ताके जा रहे हैं।
"भावज कैसी हैं मोहसिन? और सकीना?
उससे तो आज पहली बार मिलने जा रही
हूं।... और इन दोनों के क्या नाम हैं?"
"यह नीली कमीज़ वाला बड़ा
है अरशद दूसरे का नाम नवाब है। बेटी का नाम निलोफ़र
है। बड़ा वाला सेकण्ड ईयर कामर्स में है, निलोफ़र प्लस टू के
फ़ाइनल यानि कि बारहवीं में है और नवाब मियां
दसवीं में हैं। .. सक़ीना और अम्मा
आपका इन्तज़ार कर रही हैं।"
"देखो मोहसिन अभी लोहा गरम है, तुम
जल्दी से संध्या ठाकुर से बात कर लेना। अगर देर हो
गई तो मामला ठण्डा हो जाएगा। वह कम से कम दिखा तो
रही है कि उसका इस सारे झगड़े से कुछ लेना देना
नहीं है।"
"आप तो कह रही थीं कि पांच लोग खाना
खायेंगे। आप लोग तो चार ही हैं।"
"अरे मोहसिन, हमारा ड्राइवर भी तो खाना खायेगा ! उसके
समेत तो पांच ही हुए न?"
"ओह, मैनें सोचा ही नहीं। ...आपका
प्रोग्राम अचानक कैसे बन गया?"
"अरे मैं जनवरी में दुबई गई थी
हिन्दी कान्फ़रेन्स में हिस्सा लेने। वहां यह जो लाल
और नीली कमीज़ वाले
पत्रकार हैं न, हमारे साथ ही थे।
नीली कमीज़ वाले मेहरा
जी हैं, लन्दन से हैं और लाल वाले हिन्दी
की एक मैगज़ीन से हैं। इन दोनो ने
ही हमारे ट्रिप को संभाल रखा है। हम कहां जाएंगे,
कहां रहेंगे, क्या खाएंगे, इस सब का ख़्याल ये दोनों रखते हैं। वैसे
तुम्हारे फूफा का ख़्याल भी यही रखते हैं।
यहां से मैं गया जाऊंगी और फिर वापिस कानपुर और
दिल्ली। वहां से दुवई और फिर लंदन। यह पूरा ट्रिप
लिटरेरी है। बस यहां आज़मगढ़ आई हूं आप लोगों से
मिलने और अपना बचपन दोबारा जीने।"
मोहसिन की क्वालिस मुख्य सड़क से हट कर कच्चे
रास्ते की तरफ़ मुड़ ही रही
थी कि छोटी जान ने मोहसिन से पूछा, "अरे,
ये तो बड़ा पुल है न?"
"जी छोटी जान।"
"अरे ये तो कितना छोटा लगने लगा है। हमारे बचपन में तो यह बहुत
बड़ा लगा करता था। इसके जो ये गोल दायरे बने हैं, इनमें घुस कर
हम बैठ जाया करते थे।"
मोहसिन बस मुस्कुरा भर देता है। अब क्वालिस कच्चे रास्तों में
झटके देती आगे बढ़ रही है और उसके
पीछे पीछे इनोवा भी आ
रही है। छोटी जान खेतों को देख
रही हैं और बीते वक्त को याद कर
रही हैं। आज स्कूल में मिले स्नेह ने उन्हें भावनाओं
से ओतप्रोत कर दिया है। वे सोच रही हैं क्या
इतनी भावनाओं को वे संभाल पाएंगी? उन्हें
वह पीपल का पेड़ नहीं दिखाई दे रहा न
ही कैरी का, "मोहसिन वहां एक
पीपल का पेड़ हुआ करता था और उधर
दूसरी तरफ़ कैरी का। उनका क्या हुआ।"
"छोटी जान आप तो पचास साल पुरानी बातें
कर रही हैं। अब तो कई पेड़ कट चुके हैं।"
अपने प्रिय पेड़ों के कट जाने का दु:ख छोटी जान को
भीतर तक भिगो गया है। क्वालिस रुकने
लगी है। छोटी जान ने कुछ पलों के लिये
आंखें भींच कर बन्द कर ली हैं।
गाड़ी पूरी तरह से रुक जाती
है। मोहसिन उतर कर छोटी जान की तरफ़
का दरवाज़ा खोलता है। छोटी जान उतरती
हैं। उनके पीछे की इनोवा से फूफा जान,
और दोनों पत्रकार उतरते हैं।
सबसे पहले सकीना आकर छोटी जान के
गले मिलती है। फिर पीछे होकर
छोटी जान के चेहरे को अपनी आंखों में
उतारती है। भावज अन्दर बैठी हैं।
छोटी जान ख़ुद आगे बढ़कर भावज के गले
मिलती हैं। भावज अपना रोना रोक नहीं
पाती हैं। उनकी कम देखती
आंखें भी आंसुओं की धार की
तेज़ी को महसूस कर लेती हैं।
छोटी जान भावज के हाथ अपने हाथों में लेकर बैठ
जाती हैं। नीले कुर्ते वाला पत्रकार भावज
के पांव छूता है। फिर लाल कमीज़ वाला भी
वही करता है। फूफा जान को गर्मी
महसूस हो रही है। पंखे का रुख़ उनकी
तरफ़ कर दिया जाता है।
सकीना अपनी बेटी को
लाती है। छोटी जान से मिलवाती
है। न जाने क्यों नये कपड़ों के बावजूद, छोटी जान
की मौजूदगी में, उसे अपने बच्चे साफ़
सुथरे नहीं लगते। छोटी जान का गोरा चिट्टा
रंग और सफ़ेद शलवार कमीज़ की भव्यता
के सामने हर चीज़ बौनी होती
जा रही है। सकीना महसूस
करती है कि बातचीत के लिये कोई नया
विषय बन नहीं पा रहा है। वह जल्दी से
खाना लगवा देती है। छोटी जान, फूफा और
दोनों पत्रकार महसूस कर रहे हैं कि सारा फ़र्नीचर
किराए का है। सब चुप हैं। एक मेज़पोश पर मदीना
टेण्ट हाउस कढ़ाई करके लिखा भी हुआ है।
छोटी जान भरपूर कोशिश कर रही हैं कि
वातावरण सहज बना रहे। लेकिन कोई भी सहज
नहीं है। बस भावज की ख़ुशी
एकमात्र सहज भावना दिखाई दे रही है।
छोटी जान ने अपनी प्लेट में करेला, आलू
की सूखी सब्ज़ी और दाल
की कटोरी रख ली है। फूफा
की प्लेट में केवल मीट है। लाल
कमीज़ वाले पत्रकार की प्लेट ऊपर तक
भर गयी है। नीली
कमीज़ वाले का कैमरा फ़ोटो खींचे जा रहा
है। छोटी जान के बोलने से पहले ही फूफा
जान कह उठते हैं, "अरे मेहरा जी, अब आप
भी प्लेट बना लें। फ़ोटो तो होती
रहेंगी।"
"जी, भाई साहब।" और वह भी
अपनी प्लेट लगाने लगता है। सभी लोग
अलग अलग व्यंजनों की तारीफ़ कर रहे
हैं। भावज ख़ुश है क्योंकि दाल और करेले की
तारीफ़ सभी कर रहे हैं। भावज
छोटी जान के साथ उनके बचपन की बातें
कर रही हैं। फूफा जान मीट खा चुके हैं।
अब चिकन के साथ रोटी खा रहे हैं। लाल
कमीज़ वाला पत्रकार अब चावल पर मीट
का शोरबा और चाप्स डाल रहा है। नीले कुर्ते वाला
पत्रकार करेले का मज़ा ले रहा है। छोटी जान का खाना
भी चिड़िया के चुग्गे जैसा ही होता है।
उनके सामने रसमलाई का दोना और सिंवइयां रख दी गई
हैं। छोटी जान के भीतर की
बच्ची अचानक मचलने लगी है। वे
थोड़ी सी सिंवइंयों के ऊपर एक रसमलाई
डाल कर थोड़ा रस भी डाल लेती हैं। फिर तो
फूफा जान को छोड़ कर सभी ऐसा ही करते
हैं।
हाथ धोने के लिये सब बाहर की तरफ़ आ जाते हैं।
वही टेण्ट हाउस वाले वाश बेसिन पर हाथ धोए जाते
हैं। छोटी जान पूछ लेती हैं, "अरे मोहसिन
यह पानी की टंकी
कैसी? क्या कोई पार्टी वगैरह
रखी थी?"
मोहसिन बात को टाल जाता है। छोटी जान ने मोहसिन को
कहा कि वे घर देखना चाहेंगी। घर के नाम पर जो कुछ
बचा था, वह छोटी जान को ज़ख़्मी किये जा
रहा था। उनके घर के गोल खम्भों वाला बरामदा देखने के लिये लोग
दूर दूर से आया करते थे। छोटी जान, फूफा और दोनो
पत्रकार उस बरामदे तक पहुंचे। किसी भुतहा फ़िल्म
का दृश्य लग रहा था। कई खम्भे टूट फूट गये थे। रंग
पीला पड़ गया था। मकड़ी के घने जाले
लटक रहे थे। "ये कैसे हो गया?" छोटी जान
अपनी निराशा को अभिव्यक्त किये बिना रह
नहीं पाई। मोहसिन चुप ही रह सकता था।
छोटी जान ने जब कुआं देखा तो उसे पाट दिया गया था,
"छोटी जान ये बच्चे छोटे थे न तो हमें लगा कि
कहीं गिर गिरा न जाएं। इस लिये कुएं को पटवा दिया।"
छोटी जान को अपना बचपन याद आए जा रहा था जो
इस कुएं के इर्द गिर्द ही बीता था।
"हमारे दादा जान की कब्र कहां है। है या वह
भी...... " छोटी जान दुआ मना
रही थीं कि कहीं वह कब्र
भी हटा न दी गयी हो।
"वह है, मगर झाड़ झंखाड़ खासे बड़े हो गये हैं; इसलिये दिखाई
नहीं दे रही। दरअसल कुछ हिन्दुओं ने
उस पर दीया वगैरह जलाना शुरू कर दिया था। इसलिये
हमें बताना पड़ा कि हमारे दादा की कब्र है;
किसी पीर या औलिया की
नहीं। हमें तो यह भी डर था कि
कहीं इस कब्र के ऊपर कोई मन्दिर खड़ा करने
की संध्या सिंह की कोई चाल न हो। इस
तरह वह हमारी बची खुची
ज़मीन भी मार सकती
थी।"
छोटी जान मोहसिन की कोई भी
बात सुन नहीं पा रही थीं।
उनकी आंखों से आंसू बहने लगे और हिचकियां बंध
गईं। फूफा ने आगे बढ़ कर छोटी जान को आग़ोश में ले
लिया; और छोटी जान उनके कन्धे पर सिर रख कर
फफक पड़ीं। मोहसिन को समझ नहीं आ
रहा था कि उसकी प्रतिक्रिया क्या हो;
सकीना हड़बड़ा कर घर के अन्दर चली
गई; लाल कमीज़ वाला पत्रकार खम्भों को देखता रहा
औऱ नीले कुर्ते वाला पत्रकार फूफा के कन्धों पर
रोती छोटी जान के आंसुओं को अपने कैमरे
में कैद करता रहा।
छोटी जान के आंसू थमे। टेण्ट से लाये गये वाश-बेसिन
पर उन्होंने मुंह धोया और छोटे तौलिये से मुंह को पोंछ लिया। फिर
अचानक उनके भीतर की छोटी
सी लड़की ज़िन्दा हो उठी। वे
पैदल चलती हुई दूर बहती
नदी की ओर चल दीं जहां
कभी मछलियां पकड़ा करती
थीं। फूफा के लिये वहां तक चल पाना संभव
नहीं था। लाल कमीज़ वाला पत्रकार
वहीं फूफा से बातें करता रहा। मोहसिन छोटी
जान के पीछे पीछे चल पड़ा और
नीले कुर्ते वाला पत्रकार ऐसा कोण ढूंढने लगा जहां से
नदी छोटी जान के सिर से
निकलती दिखाई दे सके। छोटी जान को पता
ही नहीं चला कि कब नदी
अपना स्थान छोड़ उनकी आंखों से बहने
लगी।
वापिस आकर छोटी जान ने फूफा के कान में कुछ कहा।
फूफा अपना ब्रीफ़केस एक कोने में ले जाकर कुछ
खोजने लगे। उन्होंने छिपाते हुए कुछ गिना और एक लिफ़ाफ़े में डाल
कर छोटी जान को दे दिया। छोटी जान ने
फूफा के कान में फिर कुछ कहा। फूफा ने इन्कार में गर्दन हिला
दी। छोटी जान को स्वयं ही
वह लिफ़ाफ़ा सक़ीना और मोहसिन को देना पड़ा। सब
चलने को तैयार थे। अबकी बार छोटी जान
अपनी इनोवा में ही बैठीं।
मोहसिन अपने दो पुत्रों के साथ क्वालिस में आगे आगे नेहरू हॉल
की तरफ़ रास्ता दिखाते हुए आगे बढ़ रहा था। उसके
दिल और दिमाग़ में एक ही सवाल खलबली
मचाए था कि लिफ़ाफ़े में कितना होगा? किन्तु उसके लिये नेहरू हॉल
तक जाना और वहां रुकना मजबूरी थी।
छोटी जान और फूफा को तिलक लगा कर फूलों
की माला पहनाई गई। उनके गले में लहरिया प्रिन्ट
की चुनरी डाली गई। फिर दोनों
पारम्परिक दीया जलाने लगे। मोहसिन चुपके से उठा
और मोबाइल से अपने घर फ़ोन मिलाने लगा।
मोबाईल फ़ोन में रिसेप्शन नहीं मिल रहा था। मोहसिन ने
दो एक बार फ़ोन को झटका फिर देखा, किन्तु कुछ दिखाई
नहीं दिया। एक दो बटन दबाए, किन्तु कुछ हासिल
नहीं हुआ।
मोहसिन का दिल कार्यक्रम में नहीं लग रहा था। मन
ही मन हिसाब किये जा रहा था, "फ़र्नीचर,
क्वालिस, ट्रैक्टर, और खाना वगैरह मिला कर कुल नौ दस हज़ार
रुपये तो ख़र्च हो ही गये होंगे। अगर
छोटी जान इस से कुछ कम दे गईं तो बहुत नुक़सान हो
जाएगा। एक बार फिर फ़ोन की तरफ़ देखता है। हॉल में
स्थान बदलता है। किन्तु रिसेप्शन है कि मिल ही
नहीं रहा। सोचता है कि हॉल के बाहर जा कर कोशिश
करे।
अचानक पूरा हाल तालियों से गूंज उठा। मोहसिन ने सहसा पलट कर
देखा; फ़ोन बन्द कर दिया और तालियां बजाने लगा।